Wednesday 3 September 2008

आधे घंटे की धूप, पूरे जीवन की सीख

1986 से 1989 के बीच का कोई साल रहा होगा, एक दिन स्कूल में छुट्टी होने से एक घंटे पहले ही लंबी घंटी बजने लगी, इस अप्रत्याशित घटना से भौंचक लड़के एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।

कुछ समझ पाते इससे पहले ही एक मास्टर साहब आए और लड़कों से हड़बड़ाते हुए कहा - चलो, सबलोग मैदान में जाकर खड़े हो जाओ जहाँ प्रार्थना होती है, फिर शिक्षक महोदय दूसरी कक्षा की ओर बढ़ गए।

लड़कों को कुछ भी पल्ले ना पड़ा लेकिन मास्टर साहब का आदेश था, वो भी आए दिन छात्रों की पीठ पर मुक्केबाज़ी का अभ्यास करनेवाले मास्टर साहब का आदेश था, लड़के बिना कोई दुस्साहस दिखाए मैदान की ओर बढ़ चले।

ज़िला स्कूल अँग्रेज़ों के ज़माने का बना था, पुरानी अँग्रेज़ी शैली की शानदार इमारत, छात्रावास, प्रिंसिपल और वाइस प्रिंसिपल का बंगला, और तीन-तीन मैदान - मुज़फ़्फ़रपुर के ज़िला स्कूल का परिसर विशाल था, कक्षा से सभास्थल तक आने में कुछ समय लगता था।

हाईस्कूल में केवल तीन ही कक्षाएँ थीं, लाइन लगाने की एक व्यवस्था थी, पहले आठवीं की लाइन, फिर नवीं और तब दसवीं के लड़कों की लाइन - हर कक्षा में पाँच सेक्शन थे - एक सेक्शन में चालीस छात्र। थोड़ी ही देर में अलग-अलग कद काठी मगर एक ही तरह के कपड़ों - सफ़ेद शर्ट और नीली पैंट पहने छह सौ छात्र मैदान में खड़े हो गए।

लड़कों में ख़ुसुर-फ़ुसुर जारी थी, लेकिन किसी को कोई अंदाज़ा नहीं था कि इस अप्रत्याशित तरीक़े से घंटी क्यों बजी और वे मैदान में बे-समय क्यों जमा हैं। सभास्थल पर एक मंच था, कोई दो-तीन फ़ीट ऊँचा, प्रार्थना के समय वहाँ प्रिंसिपल-अध्यापक खड़े रहते थे, मगर अभी वहाँ सन्नाटा छाया था, बस सामने लड़के खड़े थे।

महीना गर्मियों का था, जुलाई-अगस्त का कोई दिन, दोपहर के तीन बज रहे होंगे, सूर्यदेवता अपना पराक्रम दिखा रहे थे।

सुबह ही बारिश हुई थी, हवा में बिखरे धूलकण फ़ुहारों में धुल चुके थे, आसमान नए शीशे की तरह साफ़ हो चुका था, अदने लड़कों पर धूप मोटी बौछार की तरह बरस रही थी।

पाँच-दस मिनट तक तो लड़के खुसुर-फ़ुसुर में व्यस्त रहे, मगर इसके बाद धूप उन्हें अखरने लगी, पहले वे परेशान हुए, फिर पस्त और आख़िरकार त्राहि-त्राहि की अवस्था आ गई - आधे घंटे के बाद।

मगर लड़के अनुशासन से आतंकित थे, उन्हें पीठ पर थुलथुल मास्टर महोदय के मुक्कों की बरसात, सूर्यदेवता के कोप से अधिक भयावह लगी, वे लाइन में खड़े ही रहे।

आख़िरकार स्कूल का भवन, ख़ाली मंच, ख़ुला मैदान, किनारे खड़े पेड़, शीशे की तरफ़ साफ़ आसमान, पराक्रमी सूर्यदेवता और बेदम होते लड़के - इन सारे किरदारों के बीच एक और किरदार का पदार्पण हुआ, लड़कों में सुगबुगाहट हुई।

लड़कों ने देखा, श्वेत धोती-कुर्ते में लिपटी एक भीमकाय काया, थुलथुलाती हुई, तालमय गति से, स्कूल के भवन की ओर से उनकी ओर बढ़ी आ रही है।

लड़के क्रोधित भी थे और भयभीत भी। क्रोधित इस बात पर कि ये वही सज्जन थे जिन्होंने उनको यूँ आधे घंटे से उनको मैदान में खड़ा करवा रखा था, बिना कोई कारण बताए। और भयभीत इस बात पर कि ये वही सज्जन थे जिनके मुक्कों की बरसात प्रसिद्ध थी। भय क्रोध पर भारी रहा - लड़के यथावत् खड़े रहे।

थुलथुल काया लड़कों के पास पहुँची, चार सीढ़ियों पर उठी और फिर मंच पर खड़ी हो गई, लड़कों को निहारने लगी, चेहरे पर कोई भाव नहीं - ना ग्लानि, ना क्रोध।

अंततः उदगार फूटे - "तुम सब सोच रहे होगे कि यहाँ ऐसे तुमलोगों को क्यों खड़ा कर दिया गया है, धूप लग रही होगी, पसीना बह रहा होगा, गला सूख रहा होगा, साँस फूल रही होगी, पैर थक रहे होंगे, शरीर बेदम हो रहा होगा, अपनी असहाय अवस्था पर कभी क्रोध आ रहा होगा, कभी निराशा हो रही होगी - है ना?"

लड़के यथावत् खड़े थे, मगर मास्टर साहब की प्रभावशाली भाषा और स्पष्ट वाणी उनके कानों में सीधे उतर रही थी।

कुछ पल के मौन के बाद उदगार फिर फूटे - "अब ज़रा सोचो कि आज लाखों लोग , इस धूप में, खुले आसमान के तले, किसी छत पर, किसी छप्पड़ पर, किसी मैदान में, किसी रेलवे लाइन पर, किसी ज़मीन के टुकड़े पर, कई दिनों से भूखे-प्यासे पड़े हैं, वो कुछ नहीं कर सकते क्योंकि उनके चारों ओर जलसागर है - बाढ़ में फँसे उन लाखों लोगों को कैसा लग रहा होगा?"

कुछ पल मौन रहा।

मंच से आवाज़ आई- "मैंने तुम सबको इसी कष्ट की अनुभूति कराने के लिए पिछले आधे घंटे से धूप में खड़ा रखा।"

कुछ पल फिर मौन रहा।

मंच से फिर आवाज़ आई - "अब कल तुमलोग बाढ़ प्रभावितों के लिए अपने-अपने घर से जो भी हो सकता है, खाना-पीना-पैसा-कपड़ा, लेकर आना, हम स्कूल की तरफ़ से बाढ़ में फँसे लोगों की सहायता की मदद में हाथ बँटाना चाहते हैं। अब तुमलोग क्लास में चले जाओ।"

लड़के स्तब्ध थे, जो बाढ़ आज सुबह तक उनके लिए एक शब्द था, एक समाचार भर था, - बाढ़ होती क्या होगी, इसे उन्होंने महसूस किया, जीवन में पहली बार, वो भी भयावह कष्टों का केवल एक हिस्सा भर, केवल आधे घंटे के लिए।

ज़िला स्कूल, मुज़फ़्फ़रपुर में हिंदी पढ़ानेवाले थुलथुल मास्टर साहब - राजेश्वर झा - की आधे घंटे की वो सीख उनके उन सभी मुक्कों से अधिक असरदार साबित हुई जिन्हें वे यदा-कदा अपने छात्रों की पीठ पर बरसाते रहते थे।

बिहार में आई भयानक बाढ़ के समय फिर वो आधे घंटे की धूप याद आ रही है।

1 comment:

Anonymous said...

स्कूल में सामग्री सिर्फ़ जुटाई गई अथवा बच्चे बाढ़ प्रभावित इलाकों में राहत के लिए गए भी ,थुलथुल मास्साब के साथ ?