Tuesday 21 July 2009

समाचार – सदा सीरियस ही क्यों, सरस क्यों नहीं

समाचार – पता नहीं क्यों नाम से ही सीरियस लगता है ये शब्द, समाचार लोगों को गुदगुदाते नहीं, लोग समाचारों से खिलखिलाते नहीं - जो समाचार बनते हैं वो सीरियस, जो बनाते हैं वो सीरियस, ऐसे में जो समाचारभोगी हैं उनके सामने सिवा सीरियसत्व धारण करने के और क्या उपाय रह जाता है?

मगर समाचार सदा सीरियस ही हों, ये ज़रूरी नहीं, कभी-कभी सीरियस समाचार भी सरस हो जाया करते हैं, गुदगुदा जाते हैं, खिलखिला जाते हैं, समाचार बननेवालों को भी, बनानेवालों को भी और समाचारभोगियों को भी।

लंदन में हाल के समय में ऐसी तीन घटनाएँ हुईं जिन्हें बनना तो चाहिए था सीरियस लेकिन वो बन बैठे सरस।

पहली घटना –

इस घटना के नायक हैं लंदन के मेयर साहब जो मीडिया में छाए रहते हैं, नाम है बोरिस जॉन्सन, पढ़ाई-लिखाई अभिजात परंपरा वाले ईटन कॉलेज और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से की है, थोड़ी केयरलेस टाइप छवि है उनकी - केशों को कंघों से बचाए रखते हैं; सड़कों पर सुबह-सुबह हाफ़पैंट-स्पोर्ट्स शू में दौड़ लगाते हैं, बारिश-बरफ़ से भी नहीं रूकते; दफ़्तर जाते हैं तो दुपहिया साइकिल पर, हेलमेट लगाए; मिला-जुलाकर कहा जाए तो मीडिया के लिए एक अलग टाइप के कैरेक्टर हैं श्रीमान बोरिस जॉन्सन – महापौर-ए-लंदन।

और अलग टाइप के बोरिस साहब के साथ अलग ही तरह की कुछ घटनाएँ भी होती रहती हैं।

हाल ही में उन्होंने लंदन में एक छोटी-सी गंदलाई नालानुमा नदी की सफ़ाई के लिए बड़े ज़ोर-शोर से अभियान छेड़ा, पाँवों में बरसाती जूते, एक हाथ में डंडेवाला झाड़ू, दूसरे में कचरा डालने का पॉलिथीन बैग थामे मेयर साहब स्वयँ नदी की सफ़ाई में जुट गए – ताकि उनकी देखा-देखी आमलोग भी इस पावनकर्म में हाथ बँटाएँ।

सारे कैमरे उनके इस करतब को देखने के लिए उनकी ओर तने थे, मेयर साहब रंग-बिरंगी गंदगियों को छानते-बीनते आगे बढ़े आ रहे थे, कि तभी उनके पैर लड़खड़ाए, उन्होंने संभलने की कोशिश की, जो विफल रही, और एकक्षण में लंबे-चौड़े बोरिस जॉन्सन ने धप्प से सीधे गंदे पानी के भीतर आसन जमा लिया।

मीडियाकर्मी पहले चौंके, फिर चहके और फिर चिल्ला पड़े – आज तो हेडलाईन मिल गई।

बाद में मीडियाकर्मियों के सामने आकर मुस्कुराते मेयर महाशय ने ख़ुद ही पूछा – मुझे उम्मीद है आप सबको बढ़िया शॉट मिला आज।

किसी पत्रकार को लेकिन चुहल सूझी और उसने पूछ डाला - सर पानी कैसा था?

मेयर महाशय बोले – पानी बड़ा ताज़गी देनेवाला था और मैं कहूँगा कि बाक़ी लोग भी डुबकी लगाएँ।

(महापौर की महाडुबकी का वीडियो देखें)

दूसरी घटना -

इस घटना के नायक हैं ब्रिटेन के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी, मेट्रोपोलिटन पुलिस के कमिश्नर – सर पॉल स्टीफ़ेंसन।

कमिश्नर साहब ने कुर्सी संभाली, कोई दो-तीन महीने बाद उनको ख़याल आया कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे सबको पता चले कि वे क्या हैं और उनकी पुलिस क्या है।

तो उन्होंने तैयारी की एक छापे की, छापे का निशाना था एक ऐसे गिरोह का सरगना जिसने एक इलाक़े के घरों में चोरियाँ कर आतंक मचाया हुआ था।

गोधूलि बेला का अँधियारा था, मार्च का महीना, कड़ाके की ठंड – और ऐसे में 80 से अधिक पुलिसकर्मी, एक हेलिकॉप्टर, भांति-भांति के यंत्र-उपकरण-शस्त्र, और एक स्थानीय पत्रकार - इन सबको लेकर कमिश्नर साहब चल पड़े छापा मारने।

और जब संदिग्ध के घर का दरवाज़ा तोड़ अंदर खोज-बीन हुई तो पहले पता चला कि वो संदिग्ध वहाँ नहीं है, और थोड़ी देर बाद ये भी पता चला कि वो कहाँ है - वो संदिग्ध हवालात में था, पुलिस ने उसे एक दिन पहले ही पकड़ लिया था, आधी रात को।

पत्रकारों ने बाद में कमिश्नर साहब से पूछा – कैसा रहा छापा?

कमिश्नर साहब बिना शर्माए बोले – बहुत अच्छा, बहुत सारी सूचनाएँ और सबूत मिले।

पत्रकारों ने पूछा – और वो जिसे पकड़ने गए थे?

कमिश्नर साहब ने कहा – मुझे ख़ुशी है कि पुलिस ने उसे पकड़ लिया, ये हर्ष करनेवाली बात है, दिखाती है कि हमारी पुलिस कितनी मुस्तैद है!

तीसरी घटना –

इस घटना के भी मुख्य किरदार हैं लंदन के महापौर बोरिस जॉन्सन.

लंदन के विख्यात चौराहे ट्रैफ़ेल्गर स्क्वायर के चार कोनों पर चार खंभे हैं, तीन पर मूर्तियाँ लगी हुई हैं, मगर चौथा खंभा दिलचस्प है – वो लंबे समय से ख़ाली पडा है क्योंकि वहाँ क्या होना चाहिए इसपर बहस चल रही है, जो अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकी है.

चौथे खंभे पर अस्थायी रूप से कुछ-कुछ होता रहता है, अभी वहाँ एक मूर्तिकार की परिकल्पना पर एक अलग तरह का आयोजन चल रहा है, खंभे पर एक आम व्यक्ति खड़ा रहता है, हर घंटे पर उसकी जगह दूसरा व्यक्ति आ जाता है, सौ दिनों तक ये सिलसिला चलेगा, 2400 लोग खंभे पर बारी-बारी से खड़े रहेंगे, और खंभे पर चढ़ने के लिए आवेदन करनेवाले लोगों की संख्या है - लगभग 15 हज़ार!

इस आयोजन का शुभारंभ मेयर के कर-कमलों से होना था, मेयर उदघाटन भाषण देने जा रहे थे, सामने दर्शक विराजमान थे कि तभी कुछ हलचल हुई।

लोगों ने देखा, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति हिरण की गति से दौड़ता हुआ आया, चीते सी छलाँग लगाई और देखते-देखते चिंपांजी की तरह झूलता हुआ खंभे पर जा चढ़ा और हाथ में रखा एक बैनर दिखाने लगा – उसपर तंबाकू विरोधी नारा लिखा था।

अब मेयर, मूर्तिकार और खंभे पर सबसे पहले चढ़ने की तैयारी करनेवाली महिला हक्के-बक्के उसे देखे जा रहे हैं, खंभे पर चढ़ा व्यक्ति उनको घूरे जा रहा है।

आखिर मुस्कुराते मेयर साहब ने बात संभाली, बोले – यही तो हम चाहते हैं, यही तो कला का लोकतंत्रीकरण है!

डाँट की जगह मिले इस दुलार से खंभे पर चढ़े तंबाकू-विरोधी-कार्यकर्ता का उत्साह दोगुना हो गया और उसने ऊपर से ही कहा – मुझे भी माइक दीजिए, मुझे भी कहना है।

मगर उसे माइक नहीं दिया गया, कहा गया – माइक लाना है तो अपना माइक लाओ, और अब कृपा कर नीचे उतरो, जिस महिला को उदघाटन करना था, वो क्रेन पर खड़ी इंतज़ार कर रही है।

फिर क्रेन ऊपर आई, महिला खंभे पर चढ़ी, और कार्यकर्ता नीचे उतर आया - क्रेन से।

(अनूठी कला के समय हुई अनूठी कलाबाज़ी का वीडियो देखें)

अब बताएँ – ये सीरियस बनने गए समाचार सरस बन बैठे कि नहीं?

याद पड़ता है – कुछ समय पहले एक सभा में वरूण गांधी स्टेज लिए-दिए ज़मीन पर आ बैठे थे, मगर ये घटना भी सीरियस समाचार बनकर रह गई – समाचार बननेवाले भी सीरियस रहे, समाचार बनानेवाले भी सीरियस, रहा सवाल समाचारभोगियों का - तो जिनके भीतर भी सरसता-सृजक तत्व होगा वो तो अवश्य एक क्षण खिलखिलाए होंगे।