Monday 28 January 2008
कैसे दिखाएँ देशभक्ति
देशभक्ति प्रदर्शन के ऐसे प्रतीकात्मक अवसरों पर धर्मसंकट और भी कई बार आए हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जब जन-गण-मन बज रहा हो, तो मुश्किल में पड़ जाता हूँ कि कैसी मुद्रा में रहूँ। सावधान होना सही होगा या कि, घर के सोफ़े पर मरे रहने, या दफ़्तर की कुर्सी पर पड़े रहने, की मुद्रा में बदलाव के बिना काम चल जाएगा। अभी तक दो तरह की राय मिली है। एक में हिकारत के साथ त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा गया -सोचना क्या है, बिल्कुल खड़े हो जाना चाहिए! दूसरे में शरारत के साथ मुस्कुराते हुए काट सुझाई गई - छत के नीचे खड़े होने पर ये नियम नहीं लागू होता है!
बहरहाल, याद नहीं पड़ता कि स्कूल में इस बारे में कोई नियम क़ानून सिखाया गया था। और भारत सरकार की राष्ट्रगान के बारे में आधिकारिक वेबसाइट पर भी जाकर चेक किया, वहाँ भी इस बारे में कुछ नहीं लिखा है, कि राष्ट्रगान बजे तो क्या करना चाहिए। ऐसी स्थिति में इस बार भी जब राष्ट्रगान बजा, असमंजस की स्थिति आई, और कोई फ़ैसला करूँ-करूँ, तबतक 52 सेकेंड निकल गए!
देशभक्ति-राष्ट्रगान-राष्ट्रीय प्रतीक ये सब एक गूढ़ पहेली वाले शब्द हैं हमारे समाज में। मातृभक्ति-पितृभक्ति-गुरूभक्ति-ईशभक्ति को तो सारे जहाँ को दिखा सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। लेकिन देशभक्ति का क्या किया जाए? सैनिक हों-सुरक्षाकर्मी हों तो कह सकते हैं, कि देश के लिए जान हाथ में लेकर घूमते हैं; खिलाड़ी हों-कलाकार हों, तो बोल सकते हैं कि देश की प्रतिष्ठा का भार कंधों पर उठाकर घूमते हैं।
लेकिन उनका क्या, जिन्होंने अपनी-अपनी दुनिया में चाहे जितना कुछ बटोर-समेट लिया है, लेकिन हैं वह उसी भीड़ का हिस्सा - जिसे आम जनता कहा जाता है; या दूसरे शब्दों में - जो ख़ास नहीं है; या सीधे शब्दों में - जो सेलिब्रिटी नहीं हैं; या कठोर शब्दों में - जो लाख माल-जंजाल बटोरने के बावजूद, पद-प्रतिष्ठा अर्जित करने के बावजूद, एनआरआई बनने या अमरीकन-ब्रिटिश पासपोर्ट लेने के बावजूद, हैं उतने ही आम, जितना कोई भी दूसरा आम आदमी होता है। आम आदमी का नाम नहीं होता है।
अब संकट इसी आम आदमी के भीतर की देशभक्ति का है। वो क्या करे कि देशभक्ति दिखे?
तो उसकी देशभक्ति दिखती है कभी क्रिकेट के मैदान में झंडा लपेटकर चिल्लाते हुए (बीयर चढ़ी हो, तो उत्साह भी परवान पर रहता है); तो कभी दिखती है स्वदेस और रंग दे बसंती देखकर सुबकते हुए(परिवार साथ रहे इस समय तो और अच्छा)।
और चिल्लाने और नाकभिंगाउ रूलाई से भी जी ना भरे, तो ई-देशभक्ति ज़िन्दाबाद! दुनिया भर की वेबसाइटों पर जाकर अपनी देशभक्ति उगलिए - कि भगत सिंह को भारत रत्न देना चाहिए और सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी से भी बड़े नेता थे, या और नहीं तो यही कि भारतीय टीम को देश की इज़्ज़त के लिए ऑस्ट्रेलिया से वालस लौट आना चाहिए!
इसके बाद देशभक्ति का असहनीय उफ़ान, जब थम जाए, तो फिर जो चाहे कीजिए। काला पैसा कमाइए, काले कारनामे कीजिए, कामचोरी कीजिए, पढ़ाई के समय लफंगई कीजिए, अपने ही देश की संपत्ति को चूना लगाइए, अपने ही किसी देशवासी का हक़ मारिए - सब चलेगा।
देशभक्ति दिखाने का मौक़ा तो फिर आएगा ही - इंडिया-पाकिस्तान मैच, कोई और देशभक्ति वाली फ़िल्म, 15 अगस्त...26 जनवरी - हैप्पी रिपब्लिक डे!हैप्पी इंडिपेंडेंस डे!
पुनश्चः वैसे ये अलग बात है कि जन-गण-मन मैं अक्सर गुनगुनाता रहता हूँ, मुझे इसका सुर बड़ा अच्छा लगता है।(एक दो बार तो बाथरूम में भी गुनगुना पड़ा था कि स्थान का भान होने पर तुरंत थम गया) कैप्टेन राम सिंह ठाकुर का तैयार किया ओरिजिनल धुन शानदार है ही। कभी सुनकर देखिए ए आर रहमान के कम्पोज़्ड जन-गण-मन एलबम को। भारतीय शास्त्रीय संगीत के तमाम दिग्गज नामों ने, आठ रागों में, राष्ट्रगान को गाया और बजाया है। देशभक्ति अपनी जगह होगी, लेकिन यहाँ अलग-अलग आवाज़ों और साज़ों में जन-गण-मन को सुनने पर, वह एक ओजस्वी राष्ट्रगान से अधिक एक मधुर संगीतमय कृति के जैसा लगता है। एक सुंदर अनुभूति।
आप भी सुनिए रहमान का जन-गण-मन एलबम
Thursday 17 January 2008
माई फ़्रेंड इमैनुएल
मगर कुछ चेहरे बेबात मुस्कुराते हैं। वैसे मुस्कुराने के लिए तो, हम-आप भी मुस्कुराते हैं। कभी असली, तो कभी नक़ली मुस्कुराते हैं। लेकिन कुछ चेहरे सचमुच मुस्कुराते हैं। मन से मुस्कुराते हैं। हरदम मुस्कुराते हैं।
ऐसा ही एक चेहरा था इमैनुएल का। लंदन में हमारे दफ़्तर की कैंटीन के काउंटर पर बैठनेवाला इमैनुएल। किसी को याद नहीं कि कभी उसे बिना मुस्कुराहट के देखा हो।
खिली हुई मुस्कुराहट थी इमैनुएल की। एकदम बच्चों के जैसी - जिनकी खिलखिलाहट देख, शोक-शिकायत से बुझे चेहरों या ज्ञान-गुरूत्व से लदे चेहरों पर भी बिना टिकट कटाए मुस्कुराहट तैर जाती है।
इमैनुएल ऐसा ही था। नाइजीरिया का रहनेवाला। शुद्ध अफ़्रीकी,काला। उम्र कोई तीस-पैंतीस के बीच। लंबा क़द-भरा बदन-गोल चेहरा। हरदम रात में दिखता कैंटीन में। कोट-पैंट में बना-ठना। कभी कैंटीन के काउंटर पर बैठा रहता, कभी खाने-पीने की चीजों का ध्यान रख रहा होता। और नज़र मिलती नहीं कि मासूम मुस्कुराहट के साथ पूछ बैठता - "हेल्लो माई फ़्रेंड, हाउ आर यू?"
उसकी मुस्कुराहट को सब नोटिस करने लगे थे। इतना कि हम मज़ाक में कहते - अगर कल कोई आकर कहे कि इमैनुएल मर गया, तो भी हम उसका मुस्कुराता ही हुआ चेहरा याद करेंगे...और मुस्कुराएँगे।
कैंटीन में काम तो बहुत लोग करते थे - गोरे-काले, मर्द-औरत, यूरोपियन-एशियन-अरब-अफ़्रीकन। लेकिन इमैनुएल में कुछ ख़ास था। वो बला का मेहनती था। उसके हाथ में अक्सर कोई किताब रहती या अख़बार।
वो लॉ की पढ़ाई करता था। दिन में पढ़ाई करता और रात में कैंटीन में काम करके अपना गुज़ारा निकालता। और रात में, जो भी समय होता उसमें वो पढ़ता रहता। पिछले तीन-चार साल से देख रहे थे सब उसे, ब्रिटिश क़ानून की मोटी किताबों से जूझते। उसने बताया कि वो क्रिमिनल लॉ में स्पेशलाइज़ कर रहा है।
मगर इमैनुएल के साथ संपर्क तो उसी तरह का था जैसा कि अख़बार-मैग्ज़िन,सब्ज़ी-समोसा लेनेवालों के साथ होता है। चाहे बरसों एक ही दूकान से सब्ज़ी लेते हों, हफ़्ते में दो-तीन दिन मिलते हों, लेकिन रहता तो वो स्टोरवाला ही है-तरकारीवाला ही है, संबंध तो नहीं बन जाता उससे? तो इमैनुएल भी कैंटीनवाला ही था। कितनी बात होती? हाय-हेलो-थैंक्यू, या बहुत हुआ तो - आज ठंड है-आज गर्मी है, एक घंटे में शिफ़्ट ख़त्म हो जाएगी-आज मेरी अंतिम नाइट शिफ़्ट है...इसी तरह के वाक्यों में बँधी बातें होती थीं इमैनुएल से। पिछले तीन-चार साल से।
इस साल के पहले हफ़्ते की बात है। रात के दो बज रहे होंगे। काम ख़त्म कर कैंटीन भागा। जल्दी से कुछ हल्का-फुल्का बटोरने। भूख लगी थी, काम के चक्कर में खा नहीं पाया था ठीक से। घर लौटकर सीधे खाट पर कंबल तान लूँ, इसलिए सोचा पहले कैंटीन से कुछ दाना चुग लिया जाए।
तभी देखा कैंटीन में एक टेबुल पर काले फ़्रेम में रखी एक तस्वीर रखी है। एक डायरी भी है साथ में, उसपर कलम रखी है। मैंने तस्वीर को देखा - वहाँ इमैनुएल का चेहरा था। मुस्कुराता हुआ। कुछ देर देखता ही रह गया उसे। फिर तस्वीर के बगल में कुछ पंक्तियाँ लिखी देखीं। उनमें बताया गया कि क्रिसमस के दौरान इमैनुएल बीमार हो गया था। वो उबर नहीं पाया। उसकी मृत्यु हो गई।
मैं कैंटीन से चुपचाप वापस चला आया। ना डायरी में संदेश लिखा, ना उसकी तस्वीर देखी।
मुझे रह-रहकर मज़ाक में बोली अपनी बात याद आ रही थी - "कल कोई आकर कहे कि इमैनुएल मर गया, तो भी हम उसका मुस्कुराता ही हुआ चेहरा याद करेंगे...और मुस्कुराएँगे।"
मुझे इमैनुएल का मुस्कुराता चेहरा ही याद आया...लेकिन मैं मुस्कुरा ना सका...शायद इमैनुएल होता तो मुस्कुराता...बेबात मुस्कुराता...
Tuesday 8 January 2008
सिमरिया का सचः हुँकार का तिरस्कार
लेकिन सामान्य प्राणियों की दुनिया में बिल्कुल नीचे से शुरू किया जाए तो किसी छुटके से स्कूली बच्चे के लिए कविता क्या है?...वो छुटकू तो तब अपने भाव को व्यक्त भी नहीं कर सकता। लेकिन थोड़ी उम्र होने पर शायद इस तरह की कुछ परिभाषा आएगी कि – "कविता कुछ ऐसी पंक्तियाँ थीं जिन्हें रटकर उगलना ज़रूरी था, ताकि परीक्षा में पास हुआ जा सके"।
थोड़ा ऊपर की श्रेणी में जाएँ, जब छुटकू एक टीनएजर या किशोर बन जाता है, तो उसके लिए कविता ‘साहित्य-सरिता’ या ‘भाषा-सरिता’ जैसी पाठ्य-पुस्तकों में शामिल ऐसी पंक्तियाँ बन जाती हैं, जिनको रटने से ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है, उनकी व्याख्या को रटना। कवि ने कविता क्यों लिखी, इसको समझना...या रटना। वो भी गेस के हिसाब से, कि पिछले साल निराला की ‘भिक्षुक’ आ गई थी इसलिए उसे पढ़ना बेकार है। इस साल तो दिनकर की ‘शक्ति और क्षमा’ या बच्चन की ‘पथ की पहचान’ में से कोई एक लड़ेगी...फिर स्कूली शिक्षा समाप्त, जबरिया कविता की पढ़ाई समाप्त!
लेकिन छुटकू जब बड़ा होकर कॉलेज में आता है तो भी कविता से ख़ुदरा-ख़ुदरी वास्ता पड़ता ही रहता है। मसलन कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता हो, कोई लेख हो, तो उसमें छौंक लगाने के लिए कहीं से छान-छूनकर दो-चार पंक्तियाँ लगाने के लिए कविता की आवश्यकता पड़ती है। एक तो भाषण में, लेख में चार चाँद लग जाएँगे, ऊपर से इंप्रेशन भी जमेगा, कि लड़का पढ़ने-लिखनेवाला है।
कुछ इसी तरह के माहौल में दिनकर जी की कविताओं से मेरा परिचय हुआ। स्कूली दिनों में दिनकर जी की कौन-सी कविता पढ़ी, बिल्कुल याद नहीं, ये भी हो सकता है कि उस साल दिनकर जी की कविता गेस में नहीं हो, इसलिए देखी तक नहीं। अलबत्ता एक लड़का था स्कूल में, जिसके बारे में चर्चा थी या कोरी अफ़वाह, कि वो दिनकर जी का नाती है। मैं भी लड़के को देखकर आया, लेकिन मुझे उसमें, एक छात्र - जो अपढ़ाकू था, एक क्रिकेटर - जो अगंभीर खिलाड़ी था और एक वाचाल - जिसकी भाषा अश्लील थी, इसके सिवा कुछ ना दिखा। मगर हुआ ये कि दिनकर मेरे लिए पहेली अवश्य बन गए, बल्कि दिनकर जी का पहला इंप्रेशन तो निहायती अप्रभावकारी सिद्ध हुआ।
बहरहाल, कॉलेज के दिनों में भाषण और लेख में छौंक डालने के अभियान के दौरान मुझे कविता क्या है...इस प्रश्न का उत्तर मिल गया। कविता मेरे लिए कुछ वे पंक्तियाँ बन गईं जो आपको हिलाकर रख दे, एक छोटा-सा ही सही, मगर झटका ज़रूर दे, आपकी तंद्रा भंग कर दे, आपको आत्मशक्ति दे, आपका नैतिक विश्वास डगमग ना होने दे, आपको एक अच्छा इंसान बनाने में मदद करे। और कविता की इस शक्ति से मेरा साक्षात्कार कराया दिनकर जी की कविताओं ने, जिनका एक कथन बाद में पढ़ा कि –
“कविता गाकर रिझाने के लिए नहीं बल्कि पढ़कर खो जाने के लिए है”
तब पढ़ी हुईं उनकी कुछ पंक्तियाँ ऐसे ही याद हो गईं, बिना रट्टा मारे! छोटे-छोटे काग़ज़ के पर्चों पर स्केच पेन से लिखकर उनकी इन कुछ पंक्तियों को साथ रखा करता था –
“धरकर चरण विजित श्रृंगों पर, झंडा वही उड़ाते हैं,
अपनी ही ऊँगली पर जो, खंजर की ज़ंग छुड़ाते हैं,
पड़ी समय से होड़, खींच मत तलवों से काँटे रूककर,
फूँक-फूँक चलती ना जवानी, चोटों से बचकर, झुककर.”
और एक कविता से कुछ पंक्तियाँ थीं –
“तुम एक अनल कण हो केवल,
अनुकूल हवा लेकिन पाकर,
छप्पड़ तक उड़कर जा सकते,
अंबर में आग लगा सकते,
ज्वाला प्रचंड फैलाती है,
एक छोटी सी चिनगारी भी.”
एक और कविता थी –
“तुम रजनी के चाँद बनोगे, या दिन के मार्तंड प्रखर,
एक बात है मुझे पूछनी, फूल बनोगे या पत्थर?
तेल-फुलेल-क्रीम-कंघी से नकली रूप सजाओगे,
या असली सौंदर्य लहू का आनन पर चमकाओगे?”
पता नहीं साहित्य के धुरंधरों की दुनिया में इन पंक्तियों का कितना महत्व है, लेकिन एक सामान्य छात्र की सामान्य दुनिया में ये पंक्तियाँ कई कमज़ोर पलों का सहारा बनीं।
फिर छह साल बाद, काम करते समय, एक नए संगठन में आया तो एक दिन एक पुराने वरिष्ठ सहयोगी से पूछा कि क्या किसी ने कभी दिनकर जी से कोई इंटरव्यू लिया था जो मैं सुन सकूँ। पता चला कि एक प्रख्यात प्रस्तुतकर्ता ने एक बार दिनकर जी का इंटरव्यू लिया था और उसकी कॉपी उनके पास होनी चाहिए। प्रस्तुतकर्ता तबतक अवकाश प्राप्त कर चुके थे मगर बीच-बीच में दफ़्तर आते थे। आख़िर मैंने एक दिन उनसे अपनी इच्छा बताई, और मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा जब कुछ ही दिन बाद उन्होंने बिना किसी मान-मनौव्वल के अपनी जानी-पहचानी मुस्कुराहट के साथ दिनकर जी के इंटरव्यू का एक कैसेट लाकर मुझे सौंप दिया और ये भी बताया कि दिनकर जी का डील-डौल और व्यक्तित्व कितना प्रभावशाली था। इस घटना के कुछ अर्से बाद उस उदार प्रस्तुतकर्ता का स्वर्गवास हो गया। उनका वो अमूल्य उपहार, एक आशीष के रूप में आज भी मेरे पास रखा है।
अब दिनकर जी की क़द-काया के बारे में तो मैं दूसरों से ही सुन सकता था, लेकिन उनकी आवाज़ सुनने का मौक़ा मेरे सामने प्रस्तुत था। और सचमुच दिनकर जी की आवाज़ में वही गर्जना थी, वही तेज़, वही आह्वान जो उनकी कविताओं में महसूस किया जाता रहा है...
“सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, कि स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं...” (स्कूली दिनों में सुना था कि एक किसी चटकारे प्रसंग में दिनकर जी ने ख़ुद कहा, या उन्हें किसी ने कहा इसी कविता के संदर्भ में दिनकर जी के गाँव का नाम लेते हुए कि – सुनूँ क्या बंधु मैं गर्जन तुम्हारा, कि स्वयं सिमरिया का भूमिहार हूँ मैं...)
दिनकर जी की ओजस्वी वाणी आप यहाँ क्लिक कर सुन सकते हैं (साभारः बीबीसी हिंदी सेवा)
तो इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में दिनकर जी से नाता बना रहा। कभी “रश्मिरथी”, तो कभी “कुरूक्षेत्र”, तो कभी “हुँकार” को उलटता-पलटता रहा। “संस्कृति के चार अध्याय” को भी पढ़ गया जिसके आरंभ में नेहरू जी के साथ बेलाग ठहाका लगाते हुई उनकी तस्वीर है। ( पुस्तक में दिनकर जी ने नेहरू जी की "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" के प्रति आभार व्यक्त किया है, जिसपर नेहरू जी ने पुस्तक विमोचन के समय कहा - इसमें तो आधा मेरा है...और दिनकर जी ने इसपर जवाब दिया - पूरा ही आपका है...जिसपर नेहरू जी ठहाका लगाकर हँस पड़े।)
लेकिन मन में इच्छा थी उस माटी को देखने की जिसने दिनकर जी को पैदा किया, पाला-पोसा, आशीष दिया। ये इच्छा पूरी हुई पिछले ही साल दिसंबर में जब काम के सिलसिले में बेगूसराय गया। बरौनी ज़ीरो माइल पर दिनकर जी की मूर्ति लगी है, वहाँ से राजेंद्र पुल की ओर बढ़ने पर बीहट बाज़ार के पास एक बड़ा सा गेट दिखा जिसपर दिनकर द्वार लिखा था, और उनकी कुछ कविताएँ भी लिखीं थीं। मैं रोमांच से भर उठा, राष्ट्रकवि दिनकर का गाँव, सिमरिया!
(सिमरिया गाँव में दिनकर जी का पुश्तैनी घर...अब ये निशानी भी केवल चित्रों तक ही महदूद रह गई है...हाशिए पर रहकर पावन लड़ाई में जुटे भाई रेयाज़ ने पिछले दिनों दिनकर जन्मशती पर सिमरिया में एक समारोह से लौटकर बताया कि दिनकर जन्मस्थली के जीर्णोद्धार के नाम पर इन खंडहरों को ज़मींदोज़ कर दिया गया...एक और सरकारी प्रपंच???)
चरपहिया गाड़ी गेट के नीचे से सरसराते हुए आगे निकली लेकिन कुछ ही दूर जाकर हिचकोले खाने लगी। रास्ता कच्चा पहले से था, या पक्का होने के बाद फिर से कच्चा जैसा लगने लगा था, ये बताना बेहद मुश्किल था। मगर रास्ते का रंग देखकर तो यही लग रहा था कि वो ना पक्का था-ना कच्चा, खरंजे वाली सड़क थी जिसमें शायद ईंटे बिछाई गई थीं किसी ज़माने में जो अब घिस चुकी थीं और अब उनपर धूल और मिट्टी का राज था। रास्ते के दोनों तरफ़ खेत थे, जो तब भी वैसे ही रहे होंगे जब दिनकर इन रास्तों से गुज़रे होंगे। मन था कि खेत, धूल-मिट्टी तथा आते-जाते लोगों, गाड़ी को निहारते बच्चों से डायरेक्ट आँखें मिलाऊँ लेकिन तेज़ उड़ती धूल के कारण गाड़ी का शीशा चढ़ाना ही पड़ा। गाड़ी हिचकोले खाते, धूल के बादल से लड़ती हुई आगे बढ़ती रही, मैं शीशे के पीछे से कभी आगे-कभी दाएँ-कभी बाएँ निहारता रहा। लेकिन रास्ता था कि ख़त्म होने का नाम ही ना हो और मैं सोच रहा था कि पता नहीं तब के ज़माने में दिनकर जी कैसे मुख्य सड़क पर आते होंगे क्योंकि तब क्या, अभी के दिनों में भी सिमरिया जैसे बिहार के गाँवों में अधिकांश लोगों के लिए नियमित बाज़ार तक आने-जाने का सबसे सुलभ साधन अपने ही पाँव हुआ करते हैं, या बहुत हुआ तो साइकिल।
आख़िर चरपहिया गाड़ी में बैठकर की गई एक लंबी सी प्रतीत हुई यात्रा के बाद हम पहुँच ही गए – दिनकर के जन्मस्थान। भारत में कवियों-लेखकों-कलाकारों के जन्मस्थानों की दशा पर जिसतरह की रिपोर्टें अक्सर आती रहती हैं, उनसे मुझे ये तो कतई उम्मीद नहीं थी कि दिनकर जी की जन्मस्थली पर उसतरह का कुछ भव्य होगा जैसा कि इंग्लैंड में हुआ करता है।
इंग्लैंड में विलियम शेक्सपियर, जॉन मिल्टन, विलियम वर्ड्सवर्थ, चार्ल्स डिकेंस, जेन ऑस्टन आदि लेखकों-कवियों के जन्मस्थल-मरणस्थल से लेकर उनसे जुड़े दूसरे पतों की भी एक विशेष पहचान रखी गई है। दूर-दूर से लोग देखने आते हैं, कि अमुक पते पर, अमुक हस्ती जन्मा-मरा, या इतना समय बिताया, या कि वहाँ रहकर फ़लाँ कृति लिखी, आदि-इत्यादि। और तो और लंदन में तो आर्थर कॉनन डॉयल के विश्वविख्यात चरित्र शर्लक होम्स के नाम पर भी एक म्यूज़ियम बना है, बेकर स्ट्रीट के उसी पते पर जो कहानियों में उसका ठिकाना है। और ये तब जबकि शर्लक होम्स एक काल्पनिक चरित्र है। वैसे ये अलग बात है कि इन सारे स्थलों को देखने के लिए टिकट कटाना पड़ता है, लेकिन जिस प्रकार की व्यवस्था वहाँ है उसके लिए पैसे तो लगने स्वाभाविक हैं, इसलिए लोग टिकट कटाकर शेक्सपियर और जेन ऑस्टन के जन्मस्थलों और समाधियों को देखने जाते हैं।
बहरहाल सिमरिया में ब्रिटेन सरीखी किसी व्यवस्था की तो मुझे उम्मीद नहीं थी, लेकिन जो दिखा उसकी भी कहीं से कोई उम्मीद नहीं थी।
(ऊपर जो बिना पल्लों की चौखट, चौखट से लटकता बदनसीब ताला, जंग से लड़ती खिड़कियों की सलाखें, बदरंग और कमज़ोर पड़ चुकी दीवारों और झाड़-झंखाड़ से घिरा कमरेनुमा खंडहर नज़र आ रहा है...सिमरियावासी उसे दिनकर जी का गर्भगृह कहते हैं, वो कमरा जहाँ 23 सितंबर 1908 को दिनकर उगे थे, अब ये सब भी नहीं रहा!!!)
दिनकर के जन्मस्थल की एक-एक दरकती-जर्ज़र ईंट भारत में साहित्यकारों के साथ किए जानेवाले बर्ताव की जीती-जागती कहानी हैं! भरभराती-गुमसाई दीवारों के बीच से ले जाकर मुझे एक कमरा ये कहते हुए दिखाया गया कि यही वो गर्भगृह है जहाँ दिनकर का जन्म हुआ था। अब उस कमरे की हालत ऐसी कि सिर ऊपर करो तो साक्षात दिनकर यानी सूर्यदेवता के दर्शन हो जाएँ क्योंकि छत का नामोनिशान मिट चुका था। और दिलचस्प ये कि गर्भगृह में पता नहीं किस कारण से, दरवाज़े की चौखट में लगी साँकल में ताला लगा था। आश्चर्य की बात ये थी कि जिस कमरे की भुसभुसाई चौखट में झूलती जंग लगी साँकल में उतना ही ज़ंग लगा ताला झूल रहा था, उस दरवाज़े के पल्ले ही नदारद थे! अलबत्ता बदहाल घर के बाहर एक चमचमाते काले संगमरमर की एक पट्टिका दिखी जिसपर लिखा था – ‘15 जनवरी 2004 को बरौनी रिफ़ाइनरी के सौजन्य से राष्ट्रकवि की जन्मस्थली के उन्नयन कार्य का श्रीगणेश हुआ’। शायद भगवान गणेश भी अपनी बदनामी पर आहत हो रहे होंगे!
दिनकर के जन्मस्थल की ये दुर्दशा देखकर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि लगभग सौ साल पहले सचमुच यहाँ साहित्य का एक ऐसा प्रखर दिनकर जन्मा था जिसकी आभा से सारा राष्ट्र आलोकित हुआ।
सिमरिया में दिनकर जी की पीढ़ी के कुछ लोगों का कहना था कि राष्ट्रकवि बनने के बाद भी दिनकर का सिमरिया से नाता टूटा नहीं था। लोगों ने बताया कि दिनकर जी के अपने रिश्तेदार अब पटना में रहा करते हैं। पटना में दिनकर जी के घर का या किसी अन्य स्मृति-स्थल का तो पता नहीं, वैसे एक दिनकर मूर्ति अवश्य है राजेंद्र नगर के पास, जिसका ज़िक्र अब केवल पता बताने के एक प्वाइंट के तौर पर हुआ करता है।
बात समझ में बिल्कुल नहीं आती कि दिनकर जी के घर की ऐसी हालत क्यों है। दिनकर जी स्वयं भी तीन-तीन बार राज्यसभा के सांसद रहे थे, फिर ये हाल कैसे है, क्योंकि आज के दिन में तो ये बात अपचनीय है कि किसी पूर्व सांसद का घर बेहाल हो। दिनकर जी के गाँव में, उनका जो टूटा-फूटा घर बचा है उसके चारों तरफ़ के सारे घर पक्के हैं। केवल एक घर कच्चा है – दिनकर का घर।
लेकिन शायद गाँधीवाद को स्वीकार करने के बावजूद युवाओं को विद्रोह की राह दिखाने के कारण स्वयँ को एक ‘बुरा गाँधीवादी’ बतानेवाले दिनकर संसद में पाँव रखकर भी नेता नहीं बन सके।
कैमरे में तस्वीरें, और मन में एक मायूसी लिए मैं वापस जाने के लिए तैयार हुआ। ये सोचता कि अगर राष्ट्रकवि के जन्मशती वर्ष में उसके जन्मस्थल का ऐसा तिरस्कार हो सकता है तो राष्ट्र के अन्य कवियों की कहानी बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
(काले संगमरमर की ये पट्टिका दिखती है दिनकर जी के घर के अहाते में...बीमार की देह पर मोतियों के हार के समान...पता नहीं अपनी चमचमाहट पर अकड़कर चुप है, या आस-पास छाई बदहाली ने सकते में डाल दिया है...पट्टिका मगर ख़ामोश है!!!)
मैं दिनकर के जन्मस्थल पर कोई रिपोर्ट करने के इरादे से कतई नहीं गया था। रिपोर्ट मेरे दूसरे सहयोगी कर रहे थे। दिनकर मेरे लिए 'स्टोरी' भर नहीं थे। लेकिन मेरे साथ सफ़र कर रहे एक स्थानीय पत्रकार को लगा कि शायद मैं कोई ‘स्टोरी’ ढूँढ रहा हूँ, इसलिए उसने मुझसे कहा – ‘आए हैं तो यहाँ एक रिपोर्ट कर लीजिए, एक चरवाहा है जो भइंसी भी चराता है और दिनकर जी की कविताएँ भी सुनाता है।’
मैंने धन्यवाद देकर उस सज्जन से कहा – ‘ना ठीक है, आप कर लीजिए।’
पत्रकार ने कहा – ‘हम तो पहले ही कर चुके हैं, सहारा-ईटीवी सबपर आ चुका है।’
मैंने कहा – ‘तो ठीक ही है, हो तो चुका है।’
पत्रकार ने हिम्मत नहीं हारी और कहा- ‘एक और कहानी है, पास में नौ साल का एक बच्चा है जो बड़ा-बड़ा आदमी को उठाकर बजाड़ देता है।’
मैंने मुस्कुराकर ना की मुद्रा में सिर हिला दिया और गाड़ी में बैठा। पीछे एक तिराहे पर दिनकर जी की, शीशे में चारों ओर से घिरी, एक साफ़-स्वच्छ स्वर्णिम मूर्ति, मौन मगर मुस्कुराती, हमारी गाड़ी को जाते देख रही थी। कुछ ही पलों में गाड़ी के चारों चक्के फिर कच्ची सड़क पर हिचकोले खाने लगे। धूल-मिट्टी उड़ने लगी। शायद नृत्य कर रही थी वो माटी भी, अपने ही एक सपूत की लिखी इस कविता की धुन में खोई -
“मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का,
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी,समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं.”
Tuesday 1 January 2008
नए साल पर पुरानी बहस?
घटना पाकिस्तान की है। पाकिस्तान के जन्म से लेकर उसके सठियाने तक की उम्र तक के गिने-चुने लोकप्रिय राजनेताओं में से एक थे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो। भुट्टो साहब ज़मींदार घराने से आते थे, विलायत की हवा खा चुके थे, तो शराब अपने-आप ज़िंदगी का हिस्सा बन गई। स्कॉच व्हिस्की उनकी फ़ेवरिट थी।
राजनीति में भुट्टो साहब ने एक साथ मुल्लों को भी ललकारा और मिलिटरी को भी। लोकप्रियता का आलम ये था कि जनता उनके साथ थी, मुल्लों को भी डर लगा और मिलिटरी को भी। तो साम-दाम-दंड-भेद का ज़ोर लगने लगा, भुट्टो को दबाने के लिए।
मुल्लों ने भुट्टो के ख़िलाफ़ हवा बनानी शुरू की - शराब पीने जैसा कुफ़्र करनेवाला इस्लाम की हिफ़ाज़त कर सकेगा?
लाहौर में एक रैली हुई। और भाषणकला के माहिर भुट्टो ने वहाँ मुल्लों पर जवाबी वार किया। बोले - "वो कहते हैं मैं शराब पीता हूँ।...हाँ, मैं खुलेआम ये कहता हूँ कि मैं शराब पीता हूँ।...लेकिन...वे क्या पीते हैं?...वे तो इंसानों का ख़ून पीते हैं!"
जनसैलाब अपने नेता की हाज़िरजवाबी पर लुट गया। नया नारा ही बन गया - जीवे-जीवे भुट्टो जीवे...पीवे-पीवे भुट्टो पीवे...
भुट्टो जीते मगर जी नहीं सके। मिलिटरी ने उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया।
घटना बताने के पीछे मेरा उद्देश्य एक सवाल को खड़ा करना है - क्या शराब पीने भर से ही किसी को अच्छा या ख़राब घोषित किया जाना चाहिए? क्या एकमात्र इसी आधार पर किसी को पसंद-नापसंद करनेवाले अपने आप मुल्लों की जमात में खड़े नहीं हो जाते?
शराबख़ोरी को अच्छा-बुरा ठहराने पर बहस की आवश्यकता है ही नहीं। सिगरेट-शराब एक व्यसन है, व्यसन अच्छी चीज़ नहीं होती, ये सिगरेट-शराब के पैकेटों पर वैधानिक चेतावनियाँ पढ़ने के बाद उनका सेवन करनेवाला भी जानता है, नहीं करनेवाला भी जानता है। ये बेबहस सत्य है। ऐसा तो कतई नहीं कि इस नए साल पर शुरू कर दी गई बहस से पहले ये बात किसी को पता नहीं थी।
मगर इस सत्य से बड़ा एक ध्रुवसत्य ये है - अति सर्वत्र वर्जयेत। कोई भी चीज़ एक सीमा में ही अच्छी लगती है। फिर चाहे शराब पीने की अति हो, या मुल्लों की मौलवीगिरी की या पंडितों की पंडिताई की - फ़र्क़ नहीं पड़ता।
शराब के नशे पर बहस करने से अधिक आवश्यक है आज दूसरे नशों पर बहस करने की जिनकी तुलना में शराब के नशे का असर कुछ भी नहीं।
वो है - मैटेरियलिज़्म यानी भौतिकतावाद का नशा और फंडामेन्टलिज़्म यानी कठमुल्लावाद का नशा। इनका नशा आज सबपर भारी पड़ रहा है। और इनकी जब अति होने लगे तो इंसान झूमता नहीं, अंधा हो जाता है।
और दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही एक साथ फल-फूल रहे हैं, जिस कोलकाता और हैदराबाद में आज सॉफ़्टवेयर प्रोफ़ेशनलों का जमघट लगा है, उसी कोलकाता-उसी हैदराबाद में तस्लीमा नसरीन पर हमले होते हैं।
नववर्ष पर यही प्रार्थना करता हूँ कि सुख-साधन का गागर, सागर बने ना बने, मानवता का वृक्ष हरा-भरा रहे. उसके लिए तो ना गागर चाहिए-ना सागर...
नववर्ष पर बच्चन जी की पंक्तियाँ आपके साथ बाँटता चलूँ -
"मैं देख चुका था मस्जिद में,
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज
पर मेरी इस मधुशाला में,
पीता दीवानों का समाज
वह पुण्य कर्म, यह पाप कृत्य
कह भी दूँ - तो दूँ क्या सुबूत
कब मस्जिद पर कंचन बरसा
कब मदिरालय पर गिरी गाज?"