लंदन में बीयर की गिलास थामे गोरों के साथ कॉरपोरेटिआए अंदाज़ में बतियाते कॉन्फ़ि़डेन्ट देसी नौजवानों का दिखना सामान्य सी बात है।
लंदन में गोरियों के साथ लटपटाए ओवरकॉन्फ़िडेन्ट देसी नौजवानों का दिखना या गोरों के साथ खिखियाती देसी नवयुवतियों का दिखना भी सामान्य सी बात है।
लंदन में हेलो-थैंक्यू-नो प्रॉब्लेम टाइप के शब्दों से सज्जित ठेठ देसी अंग्रेज़ी में हैटधारी गोरे साहबों के साथ पिटपिटाते नॉन-कॉन्फ़ि़डेन्ट देसी भद्रजनों का दिखना भी एक सामान्य बात है।
लेकिन ऐसे देसी युवक-युवतियाँ-भद्रजन जिनके साथ बतिया रहे हैं, या लटपटा रहे हैं, उस किरदार का रंग गोरा ना होकर काला हो तो ये बात थोड़ी असामान्य होगी।
पता नहीं कद-काठी का भय है, या संस्कृति के अंतर से उपजा विलगाव, या भीतर कहीं समाया रंगभेद या फिर गोरे रंग के लिए जीन में दबा पड़ा दासता का भाव - ब्रिटेन में काले लोगों से भारतीयों की बहुत नहीं बनती - ये बात काले भी समझते हैं, भारतीय भी।
भारतीयों को दिखाई देता है कि झाड़ू लगाने, कचरा उठाने, टॉयलेट साफ़ करने, पहरेदारी करने जैसे ग़ैर-तकनीकी कामों में जितनी संख्या में काले हैं उतने दूसरे नहीं।
दफ़्तरों में कहीं कोई काला नहीं दिखता जो किसी बड़ी ज़िम्मेदारी वाले पद पर बैठा हो, जेनरल स्टोर्स में भी काउंटर पर अपने गुज्जू-पंजाबी दिखाई देते हैं या तमिल-बांग्लादेशी।
कुल मिलाकर जिस मोटे तरह से कहा जा सकता है कि भारतीय क्या काम करते हैं, या पाकिस्तानी-बांग्लादेशी क्या काम करते हैं, या तमिल-सिंहला, या गोरे, उस मोटे तौर से कहना बड़ा मुश्किल है कि काले लोग क्या काम करते हैं।
दूसरी तरफ़ मार-धाड़-ख़ून-ख़राबे की घटनाओं के साथ काले लोगों की छवि वैसे ही जुड़ी है जिस तरह से भारत में बम धमाकों के साथ मुसलमानो की छवि।
फिर कमर और घुटनो के बीच जाँघ के किसी हिस्से पर पैंट लटकाकर रंग-बिरंगे अंडरवियरों की प्रदर्शनी करने की कला के कारण भी काले भारतीयों की निगाहों में कलंकित होते रहते हैं।
और भारतीयों को तेल में सीझे और सने खाने की दूकानों के अस्वास्थ्यकर व्यंजनों का उपभोग करते जिसतरह से काले दिखाई देते हैं उसतरह से दूसरे नहीं दिखाई देते।
और पढ़ाई-लिखाई का मामला हो, तो हर बार अख़बार में कोई ना कोई भारतीय चेहरा दिख जाएगा मैट्रिक-इंटर(जीसीएसई-ए लेवल) की परीक्षाओं के टॉपरों की सूची में, मगर काले छात्र-छात्राओं के चेहरे दिखें, इस बात की संभावना कम ही रहती है।
ट्रेनों में भी जिस तरह से गोरे साहब-मेम या अपने देसी लोग अख़बार-मैग्ज़ीन-किताब पढ़ते नज़र आ जाते हैं, उस तरह से काले तो कभी नहीं दिखते, बहुत हुआ तो मुफ़तिया या किसी के छोड़े हुए अख़बारों को पलटते दिखाई दे जाएँगे काले पैसेंजर।
और हाँ, घूमने-घामने की जगहें हों, जहाँ पर्यटकों की भरमार हो, वहाँ भी भीड़ में नज़रें घुमाने पर गोरे दिखते हैं, चीनी-जापानी दिखते हैं, भारतीय दिखते हैं, मगर कालों का दिखना दुर्लभ ही होता है।
मिला-जुलाकर भारतीयों के मन में काले लोगों की एक सामान्य छवि यही बनती है कि काले लोग पिछड़े हैं, गोरों या भारतीयों की तरह सभ्य नहीं, गोरों और भारतीयों की तरह संपन्न नहीं।
पर पिछले एक हफ़्ते में दो दिन ऐसे आए जब लगा कि कहीं कुछ बदल रहा है शायद।
पहली घटना - रात का समय, मैं दफ़्तर से घर जा रहा हूँ, ट्रेन में इक्के-दुक्के लोग बैठे हैं, सामने की सीट पर एक काला व्यक्ति बैठा है, 40 के आस-पास की उम्र है, वो एक किताब पढ़ रहा है, पूरी तन्मयता के साथ, तमाम स्टेशन आए, वो पढ़ता ही रहा, फिर एक स्टेशन पर उसने किताब बंद की, बाहर निकला, ट्रेन चल पड़ी, मैंने खिड़की से देखा, वो किताब पढ़ते-पढ़ते ही प्लेटफॉर्म पर बाहर के दरवाज़े की ओर बढ़ रहा है।
दूसरी घटना - दिन का समय, मैं घर से दफ़्तर जा रहा हूँ, प्लेटफ़ॉर्म पर थोड़ी भीड़ है, ट्रेन सात-आठ मिनट बाद आएगी, बगल में खड़ा एक काला व्यक्ति एक किताब पढ़ रहा है, तन्मयता के साथ, लोग आ रहे हैं-जा रहे हैं, वो किताब पढ़े जा रहा है, ट्रेन आ रही है, वो तब तक पढ़ना बंद नहीं करता जब तक ट्रेन बिल्कुल रूक नहीं जाती, वो ट्रेन के भीतर जाता है, फिर से पढ़ाई में जुट जाता है।
दोनों कालों के हाथ में जो किताब थी, उसका शीर्षक था -"ड्रीम्स फ़्रॉम माई फ़ादर Dreams From My Father" - एक आत्मकथात्मक संस्मरण, उस व्यक्ति का, जो नए साल के पहले महीने की 20 तारीख़ से वाशिंगटन के व्हाइट हाउस में डेरा डालने जा रहा है।
पाँच नवंबर को उसकी जीत को चहुँओर बदलाव का नाम दिया गया। अमरीका से उठी बदलाव की वो बयार लंदन में बहती दिखाई दे रही है, निश्चित ही दूसरी जगहों पर भी बह रही होगी।
Tuesday 25 November 2008
दिख रही है बदलाव की बयार
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Friday 14 November 2008
पर्दे पर चाय-पानी पिलानेवाले वे बच्चे
"शाहरूख़ ख़ान - म्च्च, दम है बॉस, मैं तो बस स्वदेस के उस एक सीन के बाद से ही उसका..."
"कौन सा? वो बच्चे वाला? जब वो ट्रेन से जा रहा है?"
जवाब हाँ ही है जो सुनाई नहीं, दिखाई देता है - सिर दाएँ-बाएँ हिलता है, आँखें चौड़ी हो जाती हैं, कुछ इस भाव से मानो मोहन भार्गव को पानी का कुल्हड़ थमाते उस बच्चे का वो दृश्य साकार हो उठा हो। सिर मेरे मित्र का था, आँखें भी उसी की थीं।
स्वदेस अधिकतर लोगों ने तो देखी ही होगी, और लंदन-अमरीका-कनाडा के भारतीयों और भारतवंशियों ने तो कर्तव्यभाव से देखी होगी।
दृश्य सचमुच सुंदर है - संवेदनशीलता जगाउ।
फिर एक और फ़िल्म आती है - तारे ज़मीन पर। उसका भी एक दृश्य है, आमिर ख़ान किसी ढाबे पर बैठे हैं, बच्चा चाय लेकर आ रहा है, और फिर अगले दृश्य में रामशंकर निकुंभ के साथ बैठकर चाय में बिस्कुट बोरकर खा रहा है।
एक और संवेदनशीलता जगाउ सीन। कईयों के लिए नैन-भिगाउ सीन।
मगर सिनेमाई दुनिया से बाहर आते ही संवेदनशीलता का ये स्विच सीधे ऑफ़ हो जाता है।
चाय-पानी पिलानेवाले किसी बच्चे को देखकर आँसू आते हैं? चलिए शुरूआत मैं ही करता हूँ - मेरी आँखों से नहीं आते।
बाल श्रम की बहस बेमानी है क्योंकि तमाम चीख-चिल्लाहट के बावजूद बाल-श्रम अभी ख़त्म तो हुआ नहीं? ख़तम हो जाता तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के नैन-भिगाउ सीन कहाँ से आते?
किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म में कभी किसी बच्चे को चाय-पानी पिलाते देखा है?
नहीं ना? तो फिर बाल-श्रम जब ख़त्म होगा तब होगा। अभी वो है, हर दिन दिखता है, हर तरफ़ दिखता है - चाय-पानी पिलाते हुए, रेल पटरियों पर कूड़ा बटोरते हुए, सभ्य घरों में बर्तन और फ़र्श चमकाते हुए।
क्यों नहीं आँखें भीजतीं इन बच्चों को देखकर? और हाँ ये बच्चे कोई - यादों की बारात - के कानों तक बाल बढ़ाए जूनिर आमिर ख़ान जैसे बच्चे नहीं हैं, जिनका पर्दे के बच्चों से कोई मेल ही ना हो। ये बच्चे तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के रियलिस्टिक बच्चे लगते हैं।
क्यों नहीं ऑन होता संवेदनशीलता का स्विच इन रियललाइफ़ बच्चों को देखकर?
जब सिनेमा का आविष्कार हुआ तो मैक्सिम गोर्की ने कहा था - "आज का मानव अपने दैनन्दिन जीवन की सामान्य घटनाओं से विशेष उद्दीपन महसूस नहीं करता। मगर इन्हीं घटनाओं की जब नाटकीय प्रस्तुति होती है तो उससे वही मानव हिल जाता है। मुझे भय है कि एक दिन चलचित्र की ये दुनिया, वास्तविक दुनिया पर भारी पड़ेगी और मानव के मन-मस्तिष्क पर अधिकार कर लेगी।"
कोई सौ साल पहले का गोर्की का भय सही था ना?
"कौन सा? वो बच्चे वाला? जब वो ट्रेन से जा रहा है?"
जवाब हाँ ही है जो सुनाई नहीं, दिखाई देता है - सिर दाएँ-बाएँ हिलता है, आँखें चौड़ी हो जाती हैं, कुछ इस भाव से मानो मोहन भार्गव को पानी का कुल्हड़ थमाते उस बच्चे का वो दृश्य साकार हो उठा हो। सिर मेरे मित्र का था, आँखें भी उसी की थीं।
स्वदेस अधिकतर लोगों ने तो देखी ही होगी, और लंदन-अमरीका-कनाडा के भारतीयों और भारतवंशियों ने तो कर्तव्यभाव से देखी होगी।
दृश्य सचमुच सुंदर है - संवेदनशीलता जगाउ।
फिर एक और फ़िल्म आती है - तारे ज़मीन पर। उसका भी एक दृश्य है, आमिर ख़ान किसी ढाबे पर बैठे हैं, बच्चा चाय लेकर आ रहा है, और फिर अगले दृश्य में रामशंकर निकुंभ के साथ बैठकर चाय में बिस्कुट बोरकर खा रहा है।
एक और संवेदनशीलता जगाउ सीन। कईयों के लिए नैन-भिगाउ सीन।
मगर सिनेमाई दुनिया से बाहर आते ही संवेदनशीलता का ये स्विच सीधे ऑफ़ हो जाता है।
चाय-पानी पिलानेवाले किसी बच्चे को देखकर आँसू आते हैं? चलिए शुरूआत मैं ही करता हूँ - मेरी आँखों से नहीं आते।
बाल श्रम की बहस बेमानी है क्योंकि तमाम चीख-चिल्लाहट के बावजूद बाल-श्रम अभी ख़त्म तो हुआ नहीं? ख़तम हो जाता तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के नैन-भिगाउ सीन कहाँ से आते?
किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म में कभी किसी बच्चे को चाय-पानी पिलाते देखा है?
नहीं ना? तो फिर बाल-श्रम जब ख़त्म होगा तब होगा। अभी वो है, हर दिन दिखता है, हर तरफ़ दिखता है - चाय-पानी पिलाते हुए, रेल पटरियों पर कूड़ा बटोरते हुए, सभ्य घरों में बर्तन और फ़र्श चमकाते हुए।
क्यों नहीं आँखें भीजतीं इन बच्चों को देखकर? और हाँ ये बच्चे कोई - यादों की बारात - के कानों तक बाल बढ़ाए जूनिर आमिर ख़ान जैसे बच्चे नहीं हैं, जिनका पर्दे के बच्चों से कोई मेल ही ना हो। ये बच्चे तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के रियलिस्टिक बच्चे लगते हैं।
क्यों नहीं ऑन होता संवेदनशीलता का स्विच इन रियललाइफ़ बच्चों को देखकर?
जब सिनेमा का आविष्कार हुआ तो मैक्सिम गोर्की ने कहा था - "आज का मानव अपने दैनन्दिन जीवन की सामान्य घटनाओं से विशेष उद्दीपन महसूस नहीं करता। मगर इन्हीं घटनाओं की जब नाटकीय प्रस्तुति होती है तो उससे वही मानव हिल जाता है। मुझे भय है कि एक दिन चलचित्र की ये दुनिया, वास्तविक दुनिया पर भारी पड़ेगी और मानव के मन-मस्तिष्क पर अधिकार कर लेगी।"
कोई सौ साल पहले का गोर्की का भय सही था ना?
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Thursday 13 November 2008
एक लेखकाना शाम
शाम हो रही है, जिस काम के लिए पाउंडरूपी पैसे मिलते हैं, वो काम ख़त्म है, ऑफ़िसिआए माहौल में कंप्यूटर के अमूर्त स्क्रीन या किसी ललना के मूर्त नैन निहारने, या फिर ईश्वरप्रदत्त बोलने-सुनने की सुविधा के सहारे परनिंदा-परचर्चा का सुख लेने की उमर रही नहीं - सो बिल्कुल समय पर उस दफ़्तर से स्वयँ को बाहर ढकेल लिया।
नवंबर है, हवा तेज़ है, सर्द है, लेकिन मन में ना जाने कहाँ से गुलज़ार की मीठी धूप वाला ख़याल आ गया, ठंड मीठी लगने लगी - समझ गया, आज दिल लेखकाना हो रहा है।
परिभाषानुसार और परंपरानुसार लेखकों की फ़ितरत भीड़ से अलग होनी चाहिए, तो भीड़ जहाँ दफ़्तर से चार क़दम दूर बसे रेलवे स्टेशन में घुसी जा रही थी, मुझमें समाए लेखक ने मुझे चार किलोमीटर दूर एक दूसरे रेलवे स्टेशन की ओर मोड़ दिया - होठों पर गुनगुनाहट, आँखों में ऑब्ज़र्वेशन, मस्तिष्क में सोच और आत्मा में लेखक को बसाए हम चल पड़े भीड़ से अलग, एक लेखकीय सफ़र पर।
स्टेशन आ गया, शाम का समय है, दफ़्तर छूटने का समय, कर्मरत प्राणी उस दिन के कर्म के संपादन के बाद रेलगाड़ियों की ओर भागे जा रहे है, डेली पैसेंजर्स गाड़ी किस प्लेटफ़ॉर्म पर लगी है ये पढ़ने के लिए भी नहीं रूकते, चलते-चलते ही स्क्रीन पढ़ लेते हैं, जो धुरंधर हैं वे भीड़ में भी आड़े-तिरछे होकर उसी कौशल से सरसराते आगे बढ़े जा रहे हैं जिसतरह पटना के बाकरगंज रोड पर लगे जाम के दौरान दो चक्कों वाले वाहनों के सवार तीन-चार चक्कों पर लदी सवारियों से आगे निकल जाते हैं।
अधिकतर लोगों के हाथ में शाम में बँटनेवाले मुफ़तिया अख़बार हैं, जिनमें एक-दो ख़बरें पढ़ने को और दसियों देखने को मिल जाती हैं, कोई उनको देखते-देखते चल रहा है तो कोई चलते-चलते उनको देख रहा है...और उस शाम को कुलबुलाया एक लेखक चल भी रहा है और देख भी रहा है - भीड़ की तरह अख़बार को नहीं, अख़बार थामी भीड़ को।
कोई भागनेवालों की निगाह में धीमे चल रहा है, तो कोई धीमे चलनेवालों की निगाह में भाग रहा है, लेकिन भीड़ ट्रेन की ओर बढ़ी जा रही है, उसमें वेग है, गति भी और दिशा भी।
मगर इस वेग के बीच एक जगह कुछ ठहरा हुआ दिखाई दे रहा है, भीड़ आगे जाकर थोड़ा दाएँ-बाएँ ख़िसक रही है, फिर वेगवान हो जा रही है।
थोड़ा समीप जाता हूँ, देखता हूँ, एक विकलांग है, आगे बढ़ रहा है, ठहर जा रहा है, उसका संतुलन नहीं बन पा रहा।
और आगे जाता हूँ, वो केवल शारीरिक विकलांग ही नहीं, दिमाग़ी तौर पर भी विकलांग है, कभी इधर देख रहा है, कभी उधर देख रहा है, मगर समझ में नहीं आ रहा, क्या देख रहा है, साथ कोई नहीं है।
मैं एक पल उसे देखता हूँ, सामने लगी घड़ी देखता हूँ, प्लेटफ़ॉर्म देखता हूँ, वहाँ खड़ी ट्रेन देखता हूँ, उसकी ओर लपकती भीड़ देखता हूँ, एक बार फिर घड़ी देखता हूँ - और सात मिनट बचे हैं ट्रेन के छूटने में।
मगर आज तो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं, जो सब करेंगे वो नहीं करना है, उसपर से सामने चारों ओर छितराए वैभव, आधुनिकता, विकास और सुंदरता को चुनौती देनेवाला एक कैरेक्टर खड़ा है, सभ्यजन क्या करते हैं, इसे देखने का इतना बड़ा अवसर क्या हाथ से जाने दिया जा सकता है - सामान्य दिन होता तो बात अलग थी, आज तो मेरे भीतर लेखक समाया था, उसने आगे बढ़ने से रोक दिया - ट्रेन जाती है तो जाए, आधे-एक घंटे देर ही होगी ना, अगली ट्रेन से ही सही।
मैं और मेरे भीतर समाया लेखक एक कोने में दीवार से सट गए, ऐसे जहाँ से विकलांग दिखाई भी दे, और भीड़ का रास्ता भी ना रूके।
भीड़निर्माता एक के बाद एक करते बढ़ रहे हैं, विकलांग भी बढ़ रहा है, रूक रहा है, लेकिन भीड़ का कोई भी अंश रूकना तो दूर ठिठक भी नहीं रहा। एक क्षण मेरे भीतर भी कर्तव्यबोध की टीस उठती है, कि लेखकीय चोले को त्याग उस विकलांग की सहायता की जाए, लेकिन एक तो कमज़ोर इच्छाशक्ति, दूसरा लेखकीय उत्कंठा - कि भीड़ क्या करती है, ये सोचकर मैं जहाँ हूँ वहीं बना हूँ।
विकलांग अचानक रूकता है, इस बार उसके ठीक बगल में एक भारतीय साहब खड़े हैं जिन्हें मैं देख रहा हूँ कि बड़ी देर से खड़े हैं, चेहरे पर अतिगंभीर भाव लिए, कभी अख़बार पलट रहे हैं, कभी टीवी स्क्रीन पर ट्रेनों की समयसारिणी देख रहे हैं, मगर पीछे नही् देख रहे जहाँ से विकलांग आ रहा था और अब उनके ठीक बगल में इधर-उधर सिर घुमाता, मुँह हिलाता खड़ा है।
भारतीय साहब ने नैनों के दृष्टि क्षेत्र के विस्तार में विकलांग को देखा, फिर इधर देखा-उधर देखने लगे और पन्ने पलटने लगे।
प्लेटफ़ॉर्म के ठीक गेट के पास खड़ी एक काली युवती भी बार-बार पीछे की ओर देख रही है, चेहरे पर दया है उसके, लेकिन समझ में नहीं आ रहा कि वो उस विकलांग को देखने के लिए पीछे मुड़ रही है और इस कारण द्रवित है, या किसी और को देखने के लिए पीछे मुड़ रही है और उसका चेहरा ही करूणामय है।
वो फ़ोन निकालती है, किसी से बात करती है, क्या कहती है पता नहीं, लेकिन फिर वो ट्रेन की ओर बढ़ जाती है। मतलब लगता तो यही है कि वो उस विकलांग को नहीं देख रही थी। मतलब ये भी कि जिनका चेहरा करूणामय हो, वो सचमुच करूण हों, ये ज़रूरी नहीं।
प्लेटफ़ॉर्म से पहले लगे गेट के पास नेवी ब्लू पैंट, स्काई ब्लू कोट और स्काई ब्लू टोपी लगाए, एक रेलवे कर्मचारी भी तो खड़ा है, वो क्यों नहीं कोई मदद कर रहा है उस विकलांग की। देख तो रहा है वो उसकी ओर? लेकिन हो सकता है पहले भी ऐसी स्थिति से पाला पड़ा हो उसका, क्योंकि चेहरा तो अनुभव से तपा हुआ लगता है उसका। ख़ैर वो जहाँ है वही हैं, मैं भी जहाँ हूँ वहीं हूँ। इस बीच वो भारतीय महाशय ट्रेन की ओर बढ़ चुके हैं, शायद घड़ी के सात बजाने की प्रतीक्षा कर रहे थे, सात बजे के बाद जाने पर डेढ़ पाउंड की बचत हो सकती है।
आख़िर वो विकलांग टिकट खिड़की की ओर बढ़ रहा है, इसका मतलब उसे इतना अंदाज़ा तो है कि जाना किस तरफ़ है, मैं एक निगाह खिड़की के पीछे बैठे रेल कर्मचारी पर डालता हूँ जो सामान्य अँग्रेज़ लग रहा है और जो विकलांग की ओर देख भी रहा है, लगता है कि वो उस विकलांग की सहायता अवश्य करेगा।
फिर में एक निगाह घड़ी पर डालता हूँ जो कह रही है कि केवल दो मिनट रह गए हैं ट्रेन छूटने में - फिर मैं भी आगे बढ़ जाता हूँ।
स्थिति वही है जो अंतिम समय में ट्रेन में चढ़ते हुए होती है - भीड़ - मैं भीड़ में समा जाता हूँ, एक सीट के बगल में खड़ा हो जाता हूँ, कुछ ही क्षणों में पीं-पीं-पीं-पीं के साथ दरवाज़ा बंद होता है, ट्रेन चल पड़ती है।
ट्रेन में अधिकांश लोग पढ़ रहे हैं, चुपचाप, कोई मुफ़तिया बँटनेवाला अख़बार तो कोई दफ़्तर से टीपा हुआ अख़बार, कोई नोवेल थामे बैठा है तो कोई मैगज़ीन, तो कोई आईपॉड से बरसती हुई धुन में मगन है।
मैं भी अपने बैग से निकालता हूँ कुछ पन्ने - निर्मल वर्मा की एक कहानी और बाबा नागार्जुन की एक कविता - 'नया ज्ञानोदय' के नवंबर अंक में छपी है, इंटरनेट पर फ़्री है, कुछ पन्ने छाप लाया हूँ।
भीड़ भी पढ़ रही है, मैं भी पढ़ रहा हूँ - पर पता नहीं क्यों आज उस लेखकाना शाम को लिखे जानेवाले और पढ़े जानेवाले शब्दों पर संदेह-सा हो रहा है।
नवंबर है, हवा तेज़ है, सर्द है, लेकिन मन में ना जाने कहाँ से गुलज़ार की मीठी धूप वाला ख़याल आ गया, ठंड मीठी लगने लगी - समझ गया, आज दिल लेखकाना हो रहा है।
परिभाषानुसार और परंपरानुसार लेखकों की फ़ितरत भीड़ से अलग होनी चाहिए, तो भीड़ जहाँ दफ़्तर से चार क़दम दूर बसे रेलवे स्टेशन में घुसी जा रही थी, मुझमें समाए लेखक ने मुझे चार किलोमीटर दूर एक दूसरे रेलवे स्टेशन की ओर मोड़ दिया - होठों पर गुनगुनाहट, आँखों में ऑब्ज़र्वेशन, मस्तिष्क में सोच और आत्मा में लेखक को बसाए हम चल पड़े भीड़ से अलग, एक लेखकीय सफ़र पर।
स्टेशन आ गया, शाम का समय है, दफ़्तर छूटने का समय, कर्मरत प्राणी उस दिन के कर्म के संपादन के बाद रेलगाड़ियों की ओर भागे जा रहे है, डेली पैसेंजर्स गाड़ी किस प्लेटफ़ॉर्म पर लगी है ये पढ़ने के लिए भी नहीं रूकते, चलते-चलते ही स्क्रीन पढ़ लेते हैं, जो धुरंधर हैं वे भीड़ में भी आड़े-तिरछे होकर उसी कौशल से सरसराते आगे बढ़े जा रहे हैं जिसतरह पटना के बाकरगंज रोड पर लगे जाम के दौरान दो चक्कों वाले वाहनों के सवार तीन-चार चक्कों पर लदी सवारियों से आगे निकल जाते हैं।
अधिकतर लोगों के हाथ में शाम में बँटनेवाले मुफ़तिया अख़बार हैं, जिनमें एक-दो ख़बरें पढ़ने को और दसियों देखने को मिल जाती हैं, कोई उनको देखते-देखते चल रहा है तो कोई चलते-चलते उनको देख रहा है...और उस शाम को कुलबुलाया एक लेखक चल भी रहा है और देख भी रहा है - भीड़ की तरह अख़बार को नहीं, अख़बार थामी भीड़ को।
कोई भागनेवालों की निगाह में धीमे चल रहा है, तो कोई धीमे चलनेवालों की निगाह में भाग रहा है, लेकिन भीड़ ट्रेन की ओर बढ़ी जा रही है, उसमें वेग है, गति भी और दिशा भी।
मगर इस वेग के बीच एक जगह कुछ ठहरा हुआ दिखाई दे रहा है, भीड़ आगे जाकर थोड़ा दाएँ-बाएँ ख़िसक रही है, फिर वेगवान हो जा रही है।
थोड़ा समीप जाता हूँ, देखता हूँ, एक विकलांग है, आगे बढ़ रहा है, ठहर जा रहा है, उसका संतुलन नहीं बन पा रहा।
और आगे जाता हूँ, वो केवल शारीरिक विकलांग ही नहीं, दिमाग़ी तौर पर भी विकलांग है, कभी इधर देख रहा है, कभी उधर देख रहा है, मगर समझ में नहीं आ रहा, क्या देख रहा है, साथ कोई नहीं है।
मैं एक पल उसे देखता हूँ, सामने लगी घड़ी देखता हूँ, प्लेटफ़ॉर्म देखता हूँ, वहाँ खड़ी ट्रेन देखता हूँ, उसकी ओर लपकती भीड़ देखता हूँ, एक बार फिर घड़ी देखता हूँ - और सात मिनट बचे हैं ट्रेन के छूटने में।
मगर आज तो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं, जो सब करेंगे वो नहीं करना है, उसपर से सामने चारों ओर छितराए वैभव, आधुनिकता, विकास और सुंदरता को चुनौती देनेवाला एक कैरेक्टर खड़ा है, सभ्यजन क्या करते हैं, इसे देखने का इतना बड़ा अवसर क्या हाथ से जाने दिया जा सकता है - सामान्य दिन होता तो बात अलग थी, आज तो मेरे भीतर लेखक समाया था, उसने आगे बढ़ने से रोक दिया - ट्रेन जाती है तो जाए, आधे-एक घंटे देर ही होगी ना, अगली ट्रेन से ही सही।
मैं और मेरे भीतर समाया लेखक एक कोने में दीवार से सट गए, ऐसे जहाँ से विकलांग दिखाई भी दे, और भीड़ का रास्ता भी ना रूके।
भीड़निर्माता एक के बाद एक करते बढ़ रहे हैं, विकलांग भी बढ़ रहा है, रूक रहा है, लेकिन भीड़ का कोई भी अंश रूकना तो दूर ठिठक भी नहीं रहा। एक क्षण मेरे भीतर भी कर्तव्यबोध की टीस उठती है, कि लेखकीय चोले को त्याग उस विकलांग की सहायता की जाए, लेकिन एक तो कमज़ोर इच्छाशक्ति, दूसरा लेखकीय उत्कंठा - कि भीड़ क्या करती है, ये सोचकर मैं जहाँ हूँ वहीं बना हूँ।
विकलांग अचानक रूकता है, इस बार उसके ठीक बगल में एक भारतीय साहब खड़े हैं जिन्हें मैं देख रहा हूँ कि बड़ी देर से खड़े हैं, चेहरे पर अतिगंभीर भाव लिए, कभी अख़बार पलट रहे हैं, कभी टीवी स्क्रीन पर ट्रेनों की समयसारिणी देख रहे हैं, मगर पीछे नही् देख रहे जहाँ से विकलांग आ रहा था और अब उनके ठीक बगल में इधर-उधर सिर घुमाता, मुँह हिलाता खड़ा है।
भारतीय साहब ने नैनों के दृष्टि क्षेत्र के विस्तार में विकलांग को देखा, फिर इधर देखा-उधर देखने लगे और पन्ने पलटने लगे।
प्लेटफ़ॉर्म के ठीक गेट के पास खड़ी एक काली युवती भी बार-बार पीछे की ओर देख रही है, चेहरे पर दया है उसके, लेकिन समझ में नहीं आ रहा कि वो उस विकलांग को देखने के लिए पीछे मुड़ रही है और इस कारण द्रवित है, या किसी और को देखने के लिए पीछे मुड़ रही है और उसका चेहरा ही करूणामय है।
वो फ़ोन निकालती है, किसी से बात करती है, क्या कहती है पता नहीं, लेकिन फिर वो ट्रेन की ओर बढ़ जाती है। मतलब लगता तो यही है कि वो उस विकलांग को नहीं देख रही थी। मतलब ये भी कि जिनका चेहरा करूणामय हो, वो सचमुच करूण हों, ये ज़रूरी नहीं।
प्लेटफ़ॉर्म से पहले लगे गेट के पास नेवी ब्लू पैंट, स्काई ब्लू कोट और स्काई ब्लू टोपी लगाए, एक रेलवे कर्मचारी भी तो खड़ा है, वो क्यों नहीं कोई मदद कर रहा है उस विकलांग की। देख तो रहा है वो उसकी ओर? लेकिन हो सकता है पहले भी ऐसी स्थिति से पाला पड़ा हो उसका, क्योंकि चेहरा तो अनुभव से तपा हुआ लगता है उसका। ख़ैर वो जहाँ है वही हैं, मैं भी जहाँ हूँ वहीं हूँ। इस बीच वो भारतीय महाशय ट्रेन की ओर बढ़ चुके हैं, शायद घड़ी के सात बजाने की प्रतीक्षा कर रहे थे, सात बजे के बाद जाने पर डेढ़ पाउंड की बचत हो सकती है।
आख़िर वो विकलांग टिकट खिड़की की ओर बढ़ रहा है, इसका मतलब उसे इतना अंदाज़ा तो है कि जाना किस तरफ़ है, मैं एक निगाह खिड़की के पीछे बैठे रेल कर्मचारी पर डालता हूँ जो सामान्य अँग्रेज़ लग रहा है और जो विकलांग की ओर देख भी रहा है, लगता है कि वो उस विकलांग की सहायता अवश्य करेगा।
फिर में एक निगाह घड़ी पर डालता हूँ जो कह रही है कि केवल दो मिनट रह गए हैं ट्रेन छूटने में - फिर मैं भी आगे बढ़ जाता हूँ।
स्थिति वही है जो अंतिम समय में ट्रेन में चढ़ते हुए होती है - भीड़ - मैं भीड़ में समा जाता हूँ, एक सीट के बगल में खड़ा हो जाता हूँ, कुछ ही क्षणों में पीं-पीं-पीं-पीं के साथ दरवाज़ा बंद होता है, ट्रेन चल पड़ती है।
ट्रेन में अधिकांश लोग पढ़ रहे हैं, चुपचाप, कोई मुफ़तिया बँटनेवाला अख़बार तो कोई दफ़्तर से टीपा हुआ अख़बार, कोई नोवेल थामे बैठा है तो कोई मैगज़ीन, तो कोई आईपॉड से बरसती हुई धुन में मगन है।
मैं भी अपने बैग से निकालता हूँ कुछ पन्ने - निर्मल वर्मा की एक कहानी और बाबा नागार्जुन की एक कविता - 'नया ज्ञानोदय' के नवंबर अंक में छपी है, इंटरनेट पर फ़्री है, कुछ पन्ने छाप लाया हूँ।
भीड़ भी पढ़ रही है, मैं भी पढ़ रहा हूँ - पर पता नहीं क्यों आज उस लेखकाना शाम को लिखे जानेवाले और पढ़े जानेवाले शब्दों पर संदेह-सा हो रहा है।
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