Saturday 23 August 2008

अभिनव बिन्द्रा - एक समझदार अमीर?

"Wealth is the slave of a wise man. The master of a fool." ...(सेनेका- रोमन कवि, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ)

"पता नहीं क्या समझता है अपने-आपको" - अभिनव बिन्द्रा के बारे में मेरी ये राय छह साल तक रही, अब उस राय पर मुझे संदेह हो रहा है। मगर इसलिए नहीं कि उसने देश का नाम रोशन किया, तिरंगे की लाज रखी, राष्ट्रगान बजवाया, और तथाकथित रूप से एक अरब से भी अधिक लोगों का मस्तक ऊँचा करवाया।

मुझे अपनी राय पर संदेह किन्हीं और कारणों से हो रहा है, ठीक उन्हीं कारणों से, जो अभिनव बिन्द्रा के ख़िलाफ़ जाते हैं।

जो सबसे बड़ी बात अभिनव बिन्द्रा के ख़िलाफ़ जाती है, वो ये, कि वो एक अत्यंत ही अमीर घर का लाड़ला है, उसने मेडल जीत ही लिया तो क्या? और जीता भी तो ऐसे खेल में जो, बकौल श्रद्धेय अफ़लातून जी के, राजा टाइप लोगों का खेल है।

मैं भी ऐसी ही राय रख रहा था, बहुतों ने तो ओलंपिक में अभिनव की जीत के बाद पत्र-पत्रिकाओं-टीवी पर उसकी पृष्ठभूमि पढ़ने-देखने के बाद अभिनव के बारे में एक नकारात्मक राय बनाई होगी, मैं तो छह साल से बनाए हुए था। मगर पता नहीं कब, अनायास कुछ सवालों ने आ घेरा -

कि अभिनव अगर अमीरज़ादा है तो क्या एक अरब वाले देश में वो अकेला अमीरज़ादा है?

कि अभिनव अगर राजा साहब टाइप है, तो क्या वो ऐसा अकेला राजा साहब टाइप है, बनारस से लेकर बलिया तक में ऐसे राजा साहब नहीं होते?

कि अभिनव की निशानेबाज़ी अगर रईसी का उदाहरण है, तो उसकी निशानेबाज़ी और सलमान-सैफ़-पटौदी साहब की निशानेबाज़ी में क्या कोई अंतर नहीं?

कि अभिनव के पिता यदि ये कहते हैं कि वो बचपन में नौकरानी के सिर पर गुब्बारे फोड़ता था, तो क्या अपनी औलाद के बारे में ऐसी डींग मारनेवाले उसके पिता ऐसे अकेले पिता हैं, टीवी पर गाना गानेवाले अपने नकलची बच्चों को देख सुबकते माता-पिता को क्या कहिएगा, अकेले बिन्द्रा साहब को धृतराष्ट्र की पदवी क्यों? फिर घर में नौकरों को उनकी हैसियत समझानेवाले बिन्द्रा साहब क्या ऐसे अकेले साहब हैं?

कि अभिनव को अगर अपने घर के कुत्तों की याद आती है, तो क्या श्वानों के प्रति ऐसा वात्सल्य रखनेवाला अभिनव अकेला व्यक्ति है?

कि अभिनव ने अगर विदेश में रहकर पैसे फूँककर ट्रेनिंग की, तो पैसे के बल पर विदेशों में रहकर शिक्षण-प्रशिक्षण करनेवाला क्या वो अकेला व्यक्ति है?

कि अभिनव ने अगर इंटरव्यू देते समय अकड़ दिखाई तो क्या ऐसी अकड़ दिखानेवाला वो अकेला सेलिब्रिटी है? सेलिब्रिटी तो दूर, ज़रा अपने इलाक़े के कलक्टर-डीएम-डीसी से ही बात करके देख लीजिए, अकड़ का अर्थ समझ में आ जाएगा।

ऐसे अमीर, ऐसे राजा साहब, ऐसे श्वानप्रेमी, ऐसे विदेशपठित-विदेशप्रशिक्षित लोग एक-दो नहीं हज़ारों और लाखों होंगे भारत में। लेकिन अभिनव बिंद्रा की गिनती उस भीड़ से अलग करनी होगी। अभिनव उन चंद लोगों में गिना जाना चाहिए जिसने अपनी संपन्नता को एक अर्थ दिया है। वो भारत का पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक विजेता है - ये बात इतिहास में दर्ज हो चुकी है, इतिहास ये नहीं देखता कि नायकों की पृष्ठभूमि क्या होती है, इतिहास देखता है, उसकी उपलब्धि को।

अभिनव की उपलब्धि पर छींटाकशी करना थोड़ी ज़्यादती लगती है, उसमें ख़ामियाँ हैं, ये सत्य है, लेकिन इस आधार पर उसे ख़ारिज़ कर देना एक दूसरे सत्य से मुँह चुराने के जैसा है। अभिनव के बहाने फिर वही टकराव का मनहूस रास्ता सामने खड़ा है जो पता नहीं किसी मंज़िल पर जाता भी है या नहीं? इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं कि दिल्ली और देहात की लड़ाई अभिनव के मेडल जीतने के बाद भी उसी जगह है, जिस जगह उसके मेडल जीतने से पहले थी, ऐसे में एक व्यवस्था पर चोट ना कर, किसी एक को निशाना बनाना, वो भी उसपर जिसने कुछ तो किया, ये थोड़ी छोटे दिल वाली सोच लगती है।

ये सवाल हमेशा खड़ा मिलता है - उपलब्धि किसकी बड़ी होनी चाहिए - उसकी, जिसके पास कुछ भी नहीं, या उसकी, जिसने बहुत कुछ छोड़ा।

जिनके पास कुछ नहीं, उनकी उपलब्धि की प्रेरणादायी कहानियों से हम हमेशा दो-चार होते हैं,अपनी हिम्मत-मेहनत-लगन से तकदीर बदलनेवालों की ऐसी कहानियाँ जीवन-पुरूषार्थ-कर्म के प्रति आमजनों के विश्वास को जीवित रखती हैं। मगर ग़ौर से देखा जाए तो कुछ हासिल करने के लिए- जिनके पास सबकुछ है - शायद उनको भी उतना ही संघर्ष करना पड़ता है जितना जिनके पास नहीं है उनको।

अभिनव अमीर है, स्मार्ट है, अंग्रेज़ीदां है, सेलिब्रिटी भी है - भौतिक सुखदायी ऐसे कौन से साधन हैं जो उसकी पहुँच से बाहर रहे होंगे? लेकिन उसने अपने आप पर नियंत्रण किया होगा, बहुत सारे प्रलोभनों पर विजय पाई होगी, अपनी संपन्नता को एक मक़सद दिया होगा, और तब जाकर उसने हासिल की, एक ऐसी उपलब्धि, जिसपर घरवाले जो कहना है कहें, बीजिंग में जुटे बाहरवाले एक उपलब्धि की निगाह से देखते हैं।

यदि मात्र संपन्नता से ही सबकुछ जुटाया जा सकता तो क्या आज धन्नासेठों की अट्टालिकाएँ स्वर्ण पदकों से नहीं चमचमा रही होती? अभिनव की उपलब्धि शायद गाँव-देहात में सिमटे लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती होगी, लेकिन आज के आधुनिक भारत का भार कंधे पर टाँगे टहल रहे युवाओं के लिए एक आदर्श बेशक बन सकती है।

सोचिए कि अगर दो-चार प्रतिशत धन्नासेठ भी अभिनव बिन्द्रा की ही तरह अपनी धन-दौलत ऐसी किसी किसी चीज़ में लगा दें, जिससे कि भारत को मेडल मिलता हो, तो उससे मेडल ही आएगा ना, वो मोटर-मोहिनी-मदिरा में तो ज़ाया नहीं होगा। और ऐसी कल्पना तो दिवास्वप्न ही होगी कि राजा टाइप लोग स्वयं ही, बेबात रंक सरीखों में अपना ऐश्वर्य लुटा देंगे।

मैं इसलिए अपनी राय कि - "पता नहीं क्या समझता है अपने-आपको" - इस राय को बदलता हूँ। अब मुझे लगता है कि - "शायद समझता है वो अपने-आपको"।

शायद समझता हो वो सेनेका की इस उक्ति का सार - "Wealth is the slave of a wise man. The master of a fool."

Thursday 21 August 2008

अभिनव बिन्द्राः एक अक्खड़ अमीर?

"पता नहीं क्या समझता है अपने आपको" - कुछ ये सोचते हुए लौटा था मैं जुलाई 2002 की उस शाम को, लंदन से कोई 50 किलोमीटर दूर, सरे काउंटी के छोटे से शहर - बिस्ली - में स्थित नेशनल शूटिंग सेंटर से।

और अभिनव बिन्द्रा के बारे में मेरी ये राय छह साल तक बनी रही।

बात है मैनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स की - जहाँ भारत ने तहलका ही मचा दिया था - 32 स्वर्ण, 21 रजत, 19 कांस्य! सबसे कमाल का प्रदर्शन था निशानेबाज़ों का - 14 स्वर्ण, 7 रजत, 3 कांस्य!

पूरा भारत आनंदित था,कि भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स में सिक्का जमा दिया; बिस्ली में जमा सारी भारतीय शूटिंग टीम उत्साहित थी,कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी उपस्थिति का अहसास करा दिया;वहाँ मौजूद सारे भारतीय पत्रकार संतुष्ट थे,कि उनका आना सार्थक रहा।

लेकिन केवल एक शख़्स ऐसा था जो ना आनंदित था, ना उत्साहित और ना संतुष्ट - अभिनव बिन्द्रा।

अंजलि वेद भागवत,राज्यवर्धन राठौड़,जसपाल राणा,समरेश जंग,सुमा शिरूर - सबने ख़ुशी-ख़ुशी बात की। एक सिवा अभिनव के।

इंटरव्यू के लिए गया तो उसने कहा - जो पूछना है जल्दी पूछो, मुझे नहाने जाना है। बेबात की हड़बड़ी का माहौल बनाया उसने, और फिर ऐसे जल्दी-जल्दी बात की, मानो उसका कुछ छूटा जा रहा है। और बोला भी तो क्या बोला - कॉमनवेल्थ में मेडल मिलना कोई बड़ी बात नहीं है, यहाँ तो मुक़ाबला आसान रहता है!

लेकिन इसके बाद देखता हूँ - अगले सात-आठ घंटे तक वो वहीं आस-पास टहल रहा है। मैंने क्रुद्ध निगाहों से घूरा - क्या हुआ,नहाने जानेवाले थे ना? मगर उसकी निगाह कहीं और थी, वो परेशान था।

उसे बांग्लादेश के एक 15 साल के लड़के ने हरा दिया था - आसिफ़ हुसैन ख़ान। बिल्कुल ही मोहल्ले का लोकल लड़का लग रहा था आसिफ़, कम-से-कम वेल-ड्रेस्ड अभिनव के सामने, अभिनव को अपनी हार पच नहीं रही थी, वो उस लड़के से सवाल पूछे जा रहा था, उसकी निगाहों से लगा जैसे उसे आसिफ़ पर संदेह है, कम-से-कम उसकी उम्र पर, वो किसी भी सूरत में 15 वर्षीय किशोर नहीं लग रहा था, तब अभिनव 19 का रहा होगा।

बहरहाल मैं बिस्ली से लंदन लौटा, यही राय मन में बनाए कि - "पता नहीं क्या समझता है अपने आपको"।

ये राय ग़लत नहीं है, इसका विश्वास ओलंपिक शुरू होने से पहले भी तब हुआ जब एक सहयोगी को, जो ओलंपिक पर विशेष सामग्रियाँ जुटा रहा था, ये कहते हुए सुना - सबसे बात हो गई है, राठौड़, अंजलि, समरेश - एक बिंद्रा ही बात नहीं कर रहा।

मगर पिछले सप्ताह जब सुबह-सुबह अभिनव की जीत की ख़बर देखी, तो एकबारगी अपनी राय पर संदेह होने लगा। ये संदेह फिर दफ़्तर जाते ही दूर भी हो गया, जब सबको बोलते सुना - यार पूरा देश नाच रहा है, लोग रो रहे हैं, एक बस अकड़ के बैठा हुआ है तो अभिनव बिन्द्रा।

वो तो किसी से बात कर नहीं रहा था, उसकी माँ मिलीं तो बोलीं - उसने फ़ोन किया था और जब मैंने कहा कि हम मीडिया से बात कर रहे हैं, तो उसने कहा - आर यू क्रेज़ी! फिर उसने अपने दोनों कु्त्तों का हाल पूछा और कहा कि बाद में बात करेगा! पिता से बात की तो वो बोले - दो हज़ार बोतलें मँगवा ली हैं, शैम्पेनें हैं, व्हिस्कियाँ हैं, आओ-पीओ-ऐश करो!

फिर पता चला - उसने घर में शूटिंग रेंज बनाया हुआ है, तीन महीने से विदेश में है, एक कंपनी का सीईओ है, दून और सेंट स्टीफ़ेंस से पढ़ा है।

बस - इतना काफ़ी था। सारे सहयोगियों के चेहरे तमतमा उठे। मेरी राय - कि पता नहीं अपने-आपको क्या समझता है - इसमें एक और राय जुड़ गई - पैसेवाला बिगड़ैल है, अमीर बाप का बेटा।

मुझे राहत मिली - चलो मेरी राय शर्मिंदा होने से बच गई।

फिर उसके बाद इधर-उधर काफ़ी कुछ मिला पढ़ने को जिनका सार यही था - अभिनव घमंडी नहीं, एकांतप्रिय है। वैसे अपने समाज में नायकों के पूजन की परंपरा रही है, तो इसलिए अब पारखी जन अभिनव बिन्द्रा के गुणों को तलाशने और तराशने में जुट जाएँगे - इसमें कोई अचरज की बात नहीं।

मगर अब मैं अपनी राय बदल रहा हूँ। अब मुझे लग रहा है - "शायद समझता है वो अपने-आपको"।

क्यों बदल रहा हूँ मैं अपनी राय - ये अगले लेख में।

Tuesday 5 August 2008

फिर आना मम्मी

मम्मी आज वापस भारत चली गई, घर ख़ाली हो गया, ज़िन्दगी पुराने ढर्रे पर लौट आई, पिछले पंद्रह साल से चली आ रही ज़िंदगी, घर से बाहर रहने की ज़िंदगी - अपनी ज़िंदगी, अपनी आदतें, अपना परिवार, अपना घर, अपना बसाया घर।

ठीक पंद्रह साल पहले नियति ने एक पगडंडी पर ला खड़ा किया था, जो घर से बाहर जाती थी। फिर तो घर से बाहर का रास्ता दिखानेवाली उस पगडंडी से न जाने कितनी बार गुज़रता रहा - बनारस-घर, दिल्ली-घर, गोहाटी-घर, कलकत्ता-घर, लंदन-घर...

हर बार उस पगडंडी के एक तरफ़ घर होता था, मम्मी होती थी, और दूसरी तरफ़ मैं होता था। कभी आता हुआ, कभी जाता हुआ।

आता तो मम्मी का खु़श चेहरा दिखाई देता, जाता तो हाथ हिलाती मम्मी खड़ी रहती। पहले ऑटो से हाथ हिलाया करता, फिर स्लीपर बोगी की खिड़की से, फिर एसी कम्पार्टमेंट के दरवाज़े पर खड़े होकर, और अब एयरपोर्ट के डिपार्चर लाउंज पर।

पंद्रह सालों से चला आ रहा ये सिलसिला अब तो एक आदत के जैसा लगने लगा था, साल-दर-साल छुट्टियों में घर जाना, मुस्कुराती मम्मी का घर के दरवाज़े पर खड़ा मिलना, कुछ हफ़्ते या फिर महीना भर घर पर रहना, फिर वापसी, मुस्कुराती मम्मी, हाथ हिलाते हुए विदा करती मम्मी।

लेकिन आज - कुछ अलग हुआ, आज मम्मी गई, और एयरपोर्ट के डिपार्चर लाउंज के बाहर खड़ा मैं हाथ हिलाता रहा।

महीने भर पहले भी ऐसा ही कुछ अलग हुआ था, एयरपोर्ट से बाहर मैं नहीं निकला, मम्मी निकली थी, मैं बाहर खड़ा था।

पिछले एक महीने से मम्मी साथ थी, पंद्रह साल में पहली बार ऐसा हुआ जब इतना लंबा अर्सा मम्मी के साथ बिताया, मम्मी को उस रूप से दूसरे रूप में देखा, जिसमें बचपन से आज तक देखता रहा था, इस बार वो हम भाई बहनों के खाने-पीने के इंतज़ाम में घिरी मम्मी नहीं थी, ना वो पूरे घर की सफ़ाई में भिड़ी हुई मम्मी थी, ना ही मोहल्ले में लडुआ की दूकान से बिस्कुट-साबुन-सर्फ़ या कॉलोनी की सब्ज़ी की दूकान से आलू-प्याज़-परबल लेकर घर लौटती हुई मम्मी थी।

इस बार मम्मी लंदन में थी, हमारे घर थी, वो हमारे साथ सुपरस्टोर में ख़रीदारी कर रही थी, मैक्डोनल्ड्स में आलू के चिप्स और वेजिटेबल पैटीज़ खा रही थी, मैडम तुसॉद्स में नक़ली शाहरूख़-सलमान तो नेहरू सेंटर में असली ओम पुरी-गिरीश कर्नाड के साथ फ़ोटो खिंचा रही थी, केम्बिज युनिवर्सिटी में नेहरू जी और मनमोहन सिंह का कॉलेज देख रही थी, और जिसने आज तक ना कोई समुंदर देखा, ना पहाड़, वो मम्मी सात समुंदर पार एडिनबरा में समुंदर किनारे टहल रही थी, स्कॉटलैंड के ख़ूबसूरत पहाड़ों के तले खड़ी थी!

लंदन की टूरिस्ट मम्मी, घर की गार्जियन मम्मी से बिल्कुल अलग थी। लंदन की मम्मी का चेहरा उत्साह से दमक रहा था, उसके पाँव समुंदर की लहरों से मिलकर थिरक रहे थे, उसके बढ़-चढ़कर फ़ोटो खिंचवाए जा रही थी। मम्मी उन सब जगहों पर हमारे साथ थी, जिन जगहों पर इससे पहले केवल मैं और मेरी पत्नी या कभी-कभार बाहर से आए कुछ दूसरे रिश्तेदार या दोस्त जाया करते थे।

मम्मी आज चली गई, पत्नी एयरपोर्ट से ही दफ़्तर निकल गई, मैंने छुट्टी ली है, तो मैं घर लौटा हूँ, घर पर आज महीने भर बाद ख़ुद चाभी से दरवाज़ा खोलना पड़ा, महीने भर से कॉल बेल बजाया करता और मम्मी दरवाज़े पर खड़ी मिलती।

वैसे अपनी चाभी से अपने कमरों के दरवाज़े खोलने का ये सिलसिला कोई नई बात नहीं, पहले होस्टल का कमरा होता था, फिर जहाँ-जहाँ रहा वहाँ के कमरे। पंद्रह सालों से ऐसा ही चल रहा है।

लेकिन पंद्रह सालों में आज पहली बार कुछ अलग-सा महसूस हो रहा है। पहली बार ये समझ पा रहा हूँ कि कि कैसा लगा करता रहा होगा मम्मी को - पिछले उन पंद्रह वर्षों से, जब वो हाथ हिलाती पहले बेटे को, और फिर बाद में बेटे-बहू को विदा करती होगी और वापस उन दीवारों की ओर लौटती होगी, जिसके हर कोने में-हर क़तरे में कुछ देर पहले तक कोई और भी बसा हुआ था।

मैं तो बस घंटे-डेढ़ घंटे में फ़ोन लगाकर मम्मी से बात कर स्वयँ को आश्वस्त भी कर लूँगा कि मम्मी की यात्रा कैसी रही, लेकिन आज ये कल्पना ही विचित्र लगती है कि कैसा लगता रहा होगा मम्मी को उन दिनों जब ना फ़ोन था ना मोबाईल, बस चिट्ठियाँ ही बताया करतीं ये हाल कि ट्रेन कितने घंटे देर से पहुँची और रास्ते में क्या-क्या हुआ।

आज लंदन के इस ख़ाली घर में घर से बाहर निकलनेवाली पिछले पंद्रह सालों की वे सारी यात्राएँ याद आ रही हैं। लंदन का ये ख़ाली घर आज कह रहा है - फिर आना मम्मी, ज़रूर आना, तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लग रहा।