Sunday 30 June 2013

आम आदमी के नाम पर

योगेन दा प्रणाम,
 
मैं कौन हूँ ये बताने का कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि मैं आम ही नहीं अनाम भी हूँ जिसे - मैं - बोलने से संकोच होता है।
 
अभी-अभी लंदन में आपकी सभा से लौटा - आम आदमी पार्टी, यूके - की सभा।
 
केवल सुना, केवल देखा, तौला, परखा।
 
एक छवि थी मन में, जिसकी शुरूआत 89-90 के दशक से होती है जब पहली बार आपको ब्लैक एंड व्हाइ़ट टीवी पर चुनाव के समय देखा था। याद पड़ता है, अमर सिंह भी शायद उसी चुनाव से टीवी पर छाए, और फिर राजनीति में आए थे।
 
आपके लेख निरंतर पढ़ता हूँ। किशन जी के बारे में आपके मन में जो आदर है, उसने भी एक छवि बनाई आपकी क्योंकि किशन जी के लेखों ने भारतीय राजनीति की बुनियादी बातों को समझाने में मेरी बड़ी मदद की।
 
अंतिम बार आपको दिल्ली में 2001 में एक सभा में देखा था, जिसमें प्रभाष जोशी भी वक्ता थे। काम से गया था, मगर आपको चप्पल पहनकर पैदल धूल में जाते देख, काम को भूल आपको देखने लगा एक भक्त की तरह।
 
आज भी अतिउत्साह से गया था, ठीक वैसे ही जैसे मुज़फ़्फ़रपुर में - जॉर्ज, वीपी, रामविलास,चंद्रशेखर, हेगड़े आदि को सुनने जाता था - कभी चक्कर मैदान, कभी कंपनी बाग़, कभी ज़िला स्कूल, या कभी कल्याणी चौराहा।
 
मगर आज आपकी सभा से निरूत्साह लौटा। शिराओं में सनसनी नहीं हुई।
 
कुछ उद्दंड प्रश्न पूछना चाहता था - कि ये कैसी आम आदमियों की पार्टी है जिसके नेता शिकागो, लंदन, बोस्टन के चक्कर लगा रहे हैं?
 
ख़र्चे की बात को एक पल भूल भी जाएँ, तो भी - वक़्त के उपयोग का हिसाब?
 
जिस आम आदमी के पास साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं होती, उसके प्रतिनिधि रणभूमि से दूर कर क्या रहे हैं?
 
दिल्ली में आईएएस की तैयारी करनेवाले जिन छात्रों ने सब छोड़ आपकी पार्टी का साथ दिया, वो अच्छी बात है या बुरी?
 
देश को एक कर्मठ ईमानदार आईएएस से अधिक लाभ हो सकता है या मंज़िल तक नहीं पहुँच पाने के बाद दूसरे उपायों से सत्ता तक पहुँचने का चालाक इरादा करनेवालों से?
 
पर नहीं पूछा कोई भी प्रश्न, क्योंकि जैसा कि हर ओर हो रहा है, वैसा ही इस सभा में भी हुआ - बोलनेवाले बहुत हैं, सुननेवाले कम।
 
योगेन दा,ये यू-ट्यूब पर आपके भाषणों की रिकॉर्डिंग देख राजनीति सीखने और फिर ई-देशभक्ति करनेवाले लोग वोट नहीं देंगे। वोट की लाइन में नज़र आएँगे - असली आम आदमी।
 
और लंदन वाले देशभक्त तो बहुत दूर हैं, भारत में रहनेवाले ई-देशभक्त भी वोट नहीं डालते, ये कर्नाटक चुनाव के मत-प्रतिशत से सिद्ध हो चुका है।
 
राजनीति की समझ और संवेदना के लिए आयोजन नहीं, अनुभूति ज़रूरी है। यू-ट्यूब के सागर में उतरने वाले विद्यार्थी पल में भाषण, पल में भजन, पल में मनोरंजन के गोते लगाया करते हैं।
 
ऐसी ही अपरिपक्वता से इस तरह के बयान निकलते हैं जैसा कि आज सुना - 'मैं सबकुछ छोड़कर आपकी पार्टी के लिए काम करने के लिए तैयार हूँ' ; 'यहाँ बहुत सारे इंजीनियर हैं, वो आपके लिए सॉफ़्टवेयर बना सकते हैं' ; 'हमने उस दिन क्रिकेटगिरी की, ओवल मैदान पर' !!!
 
फिर भी - राजनीति के इस विद्यार्थी की शुभकामनाएँ आप सबके साथ हैं। ईश्वर करे आम आदमी के कंधे पर चढ़कर ख़ास बनने की मुहिम सफल हो, और आम आदमी का बोझ हल्का हो।
 
एक और प्रश्न पूछने की धृष्टता करना चाहता था आप, आप की टोपी क्यों नहीं पहनते?
 
- आपका एक अनाम दर्शक/पाठक/सामयिक वार्ता का आजीवन सदस्य

Tuesday 21 July 2009

समाचार – सदा सीरियस ही क्यों, सरस क्यों नहीं

समाचार – पता नहीं क्यों नाम से ही सीरियस लगता है ये शब्द, समाचार लोगों को गुदगुदाते नहीं, लोग समाचारों से खिलखिलाते नहीं - जो समाचार बनते हैं वो सीरियस, जो बनाते हैं वो सीरियस, ऐसे में जो समाचारभोगी हैं उनके सामने सिवा सीरियसत्व धारण करने के और क्या उपाय रह जाता है?

मगर समाचार सदा सीरियस ही हों, ये ज़रूरी नहीं, कभी-कभी सीरियस समाचार भी सरस हो जाया करते हैं, गुदगुदा जाते हैं, खिलखिला जाते हैं, समाचार बननेवालों को भी, बनानेवालों को भी और समाचारभोगियों को भी।

लंदन में हाल के समय में ऐसी तीन घटनाएँ हुईं जिन्हें बनना तो चाहिए था सीरियस लेकिन वो बन बैठे सरस।

पहली घटना –

इस घटना के नायक हैं लंदन के मेयर साहब जो मीडिया में छाए रहते हैं, नाम है बोरिस जॉन्सन, पढ़ाई-लिखाई अभिजात परंपरा वाले ईटन कॉलेज और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से की है, थोड़ी केयरलेस टाइप छवि है उनकी - केशों को कंघों से बचाए रखते हैं; सड़कों पर सुबह-सुबह हाफ़पैंट-स्पोर्ट्स शू में दौड़ लगाते हैं, बारिश-बरफ़ से भी नहीं रूकते; दफ़्तर जाते हैं तो दुपहिया साइकिल पर, हेलमेट लगाए; मिला-जुलाकर कहा जाए तो मीडिया के लिए एक अलग टाइप के कैरेक्टर हैं श्रीमान बोरिस जॉन्सन – महापौर-ए-लंदन।

और अलग टाइप के बोरिस साहब के साथ अलग ही तरह की कुछ घटनाएँ भी होती रहती हैं।

हाल ही में उन्होंने लंदन में एक छोटी-सी गंदलाई नालानुमा नदी की सफ़ाई के लिए बड़े ज़ोर-शोर से अभियान छेड़ा, पाँवों में बरसाती जूते, एक हाथ में डंडेवाला झाड़ू, दूसरे में कचरा डालने का पॉलिथीन बैग थामे मेयर साहब स्वयँ नदी की सफ़ाई में जुट गए – ताकि उनकी देखा-देखी आमलोग भी इस पावनकर्म में हाथ बँटाएँ।

सारे कैमरे उनके इस करतब को देखने के लिए उनकी ओर तने थे, मेयर साहब रंग-बिरंगी गंदगियों को छानते-बीनते आगे बढ़े आ रहे थे, कि तभी उनके पैर लड़खड़ाए, उन्होंने संभलने की कोशिश की, जो विफल रही, और एकक्षण में लंबे-चौड़े बोरिस जॉन्सन ने धप्प से सीधे गंदे पानी के भीतर आसन जमा लिया।

मीडियाकर्मी पहले चौंके, फिर चहके और फिर चिल्ला पड़े – आज तो हेडलाईन मिल गई।

बाद में मीडियाकर्मियों के सामने आकर मुस्कुराते मेयर महाशय ने ख़ुद ही पूछा – मुझे उम्मीद है आप सबको बढ़िया शॉट मिला आज।

किसी पत्रकार को लेकिन चुहल सूझी और उसने पूछ डाला - सर पानी कैसा था?

मेयर महाशय बोले – पानी बड़ा ताज़गी देनेवाला था और मैं कहूँगा कि बाक़ी लोग भी डुबकी लगाएँ।

(महापौर की महाडुबकी का वीडियो देखें)

दूसरी घटना -

इस घटना के नायक हैं ब्रिटेन के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी, मेट्रोपोलिटन पुलिस के कमिश्नर – सर पॉल स्टीफ़ेंसन।

कमिश्नर साहब ने कुर्सी संभाली, कोई दो-तीन महीने बाद उनको ख़याल आया कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे सबको पता चले कि वे क्या हैं और उनकी पुलिस क्या है।

तो उन्होंने तैयारी की एक छापे की, छापे का निशाना था एक ऐसे गिरोह का सरगना जिसने एक इलाक़े के घरों में चोरियाँ कर आतंक मचाया हुआ था।

गोधूलि बेला का अँधियारा था, मार्च का महीना, कड़ाके की ठंड – और ऐसे में 80 से अधिक पुलिसकर्मी, एक हेलिकॉप्टर, भांति-भांति के यंत्र-उपकरण-शस्त्र, और एक स्थानीय पत्रकार - इन सबको लेकर कमिश्नर साहब चल पड़े छापा मारने।

और जब संदिग्ध के घर का दरवाज़ा तोड़ अंदर खोज-बीन हुई तो पहले पता चला कि वो संदिग्ध वहाँ नहीं है, और थोड़ी देर बाद ये भी पता चला कि वो कहाँ है - वो संदिग्ध हवालात में था, पुलिस ने उसे एक दिन पहले ही पकड़ लिया था, आधी रात को।

पत्रकारों ने बाद में कमिश्नर साहब से पूछा – कैसा रहा छापा?

कमिश्नर साहब बिना शर्माए बोले – बहुत अच्छा, बहुत सारी सूचनाएँ और सबूत मिले।

पत्रकारों ने पूछा – और वो जिसे पकड़ने गए थे?

कमिश्नर साहब ने कहा – मुझे ख़ुशी है कि पुलिस ने उसे पकड़ लिया, ये हर्ष करनेवाली बात है, दिखाती है कि हमारी पुलिस कितनी मुस्तैद है!

तीसरी घटना –

इस घटना के भी मुख्य किरदार हैं लंदन के महापौर बोरिस जॉन्सन.

लंदन के विख्यात चौराहे ट्रैफ़ेल्गर स्क्वायर के चार कोनों पर चार खंभे हैं, तीन पर मूर्तियाँ लगी हुई हैं, मगर चौथा खंभा दिलचस्प है – वो लंबे समय से ख़ाली पडा है क्योंकि वहाँ क्या होना चाहिए इसपर बहस चल रही है, जो अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सकी है.

चौथे खंभे पर अस्थायी रूप से कुछ-कुछ होता रहता है, अभी वहाँ एक मूर्तिकार की परिकल्पना पर एक अलग तरह का आयोजन चल रहा है, खंभे पर एक आम व्यक्ति खड़ा रहता है, हर घंटे पर उसकी जगह दूसरा व्यक्ति आ जाता है, सौ दिनों तक ये सिलसिला चलेगा, 2400 लोग खंभे पर बारी-बारी से खड़े रहेंगे, और खंभे पर चढ़ने के लिए आवेदन करनेवाले लोगों की संख्या है - लगभग 15 हज़ार!

इस आयोजन का शुभारंभ मेयर के कर-कमलों से होना था, मेयर उदघाटन भाषण देने जा रहे थे, सामने दर्शक विराजमान थे कि तभी कुछ हलचल हुई।

लोगों ने देखा, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति हिरण की गति से दौड़ता हुआ आया, चीते सी छलाँग लगाई और देखते-देखते चिंपांजी की तरह झूलता हुआ खंभे पर जा चढ़ा और हाथ में रखा एक बैनर दिखाने लगा – उसपर तंबाकू विरोधी नारा लिखा था।

अब मेयर, मूर्तिकार और खंभे पर सबसे पहले चढ़ने की तैयारी करनेवाली महिला हक्के-बक्के उसे देखे जा रहे हैं, खंभे पर चढ़ा व्यक्ति उनको घूरे जा रहा है।

आखिर मुस्कुराते मेयर साहब ने बात संभाली, बोले – यही तो हम चाहते हैं, यही तो कला का लोकतंत्रीकरण है!

डाँट की जगह मिले इस दुलार से खंभे पर चढ़े तंबाकू-विरोधी-कार्यकर्ता का उत्साह दोगुना हो गया और उसने ऊपर से ही कहा – मुझे भी माइक दीजिए, मुझे भी कहना है।

मगर उसे माइक नहीं दिया गया, कहा गया – माइक लाना है तो अपना माइक लाओ, और अब कृपा कर नीचे उतरो, जिस महिला को उदघाटन करना था, वो क्रेन पर खड़ी इंतज़ार कर रही है।

फिर क्रेन ऊपर आई, महिला खंभे पर चढ़ी, और कार्यकर्ता नीचे उतर आया - क्रेन से।

(अनूठी कला के समय हुई अनूठी कलाबाज़ी का वीडियो देखें)

अब बताएँ – ये सीरियस बनने गए समाचार सरस बन बैठे कि नहीं?

याद पड़ता है – कुछ समय पहले एक सभा में वरूण गांधी स्टेज लिए-दिए ज़मीन पर आ बैठे थे, मगर ये घटना भी सीरियस समाचार बनकर रह गई – समाचार बननेवाले भी सीरियस रहे, समाचार बनानेवाले भी सीरियस, रहा सवाल समाचारभोगियों का - तो जिनके भीतर भी सरसता-सृजक तत्व होगा वो तो अवश्य एक क्षण खिलखिलाए होंगे।

Tuesday 25 November 2008

दिख रही है बदलाव की बयार

लंदन में बीयर की गिलास थामे गोरों के साथ कॉरपोरेटिआए अंदाज़ में बतियाते कॉन्फ़ि़डेन्ट देसी नौजवानों का दिखना सामान्य सी बात है।

लंदन में गोरियों के साथ लटपटाए ओवरकॉन्फ़िडेन्ट देसी नौजवानों का दिखना या गोरों के साथ खिखियाती देसी नवयुवतियों का दिखना भी सामान्य सी बात है।

लंदन में हेलो-थैंक्यू-नो प्रॉब्लेम टाइप के शब्दों से सज्जित ठेठ देसी अंग्रेज़ी में हैटधारी गोरे साहबों के साथ पिटपिटाते नॉन-कॉन्फ़ि़डेन्ट देसी भद्रजनों का दिखना भी एक सामान्य बात है।

लेकिन ऐसे देसी युवक-युवतियाँ-भद्रजन जिनके साथ बतिया रहे हैं, या लटपटा रहे हैं, उस किरदार का रंग गोरा ना होकर काला हो तो ये बात थोड़ी असामान्य होगी।

पता नहीं कद-काठी का भय है, या संस्कृति के अंतर से उपजा विलगाव, या भीतर कहीं समाया रंगभेद या फिर गोरे रंग के लिए जीन में दबा पड़ा दासता का भाव - ब्रिटेन में काले लोगों से भारतीयों की बहुत नहीं बनती - ये बात काले भी समझते हैं, भारतीय भी।

भारतीयों को दिखाई देता है कि झाड़ू लगाने, कचरा उठाने, टॉयलेट साफ़ करने, पहरेदारी करने जैसे ग़ैर-तकनीकी कामों में जितनी संख्या में काले हैं उतने दूसरे नहीं।

दफ़्तरों में कहीं कोई काला नहीं दिखता जो किसी बड़ी ज़िम्मेदारी वाले पद पर बैठा हो, जेनरल स्टोर्स में भी काउंटर पर अपने गुज्जू-पंजाबी दिखाई देते हैं या तमिल-बांग्लादेशी।

कुल मिलाकर जिस मोटे तरह से कहा जा सकता है कि भारतीय क्या काम करते हैं, या पाकिस्तानी-बांग्लादेशी क्या काम करते हैं, या तमिल-सिंहला, या गोरे, उस मोटे तौर से कहना बड़ा मुश्किल है कि काले लोग क्या काम करते हैं।

दूसरी तरफ़ मार-धाड़-ख़ून-ख़राबे की घटनाओं के साथ काले लोगों की छवि वैसे ही जुड़ी है जिस तरह से भारत में बम धमाकों के साथ मुसलमानो की छवि।

फिर कमर और घुटनो के बीच जाँघ के किसी हिस्से पर पैंट लटकाकर रंग-बिरंगे अंडरवियरों की प्रदर्शनी करने की कला के कारण भी काले भारतीयों की निगाहों में कलंकित होते रहते हैं।

और भारतीयों को तेल में सीझे और सने खाने की दूकानों के अस्वास्थ्यकर व्यंजनों का उपभोग करते जिसतरह से काले दिखाई देते हैं उसतरह से दूसरे नहीं दिखाई देते।

और पढ़ाई-लिखाई का मामला हो, तो हर बार अख़बार में कोई ना कोई भारतीय चेहरा दिख जाएगा मैट्रिक-इंटर(जीसीएसई-ए लेवल) की परीक्षाओं के टॉपरों की सूची में, मगर काले छात्र-छात्राओं के चेहरे दिखें, इस बात की संभावना कम ही रहती है।

ट्रेनों में भी जिस तरह से गोरे साहब-मेम या अपने देसी लोग अख़बार-मैग्ज़ीन-किताब पढ़ते नज़र आ जाते हैं, उस तरह से काले तो कभी नहीं दिखते, बहुत हुआ तो मुफ़तिया या किसी के छोड़े हुए अख़बारों को पलटते दिखाई दे जाएँगे काले पैसेंजर।

और हाँ, घूमने-घामने की जगहें हों, जहाँ पर्यटकों की भरमार हो, वहाँ भी भीड़ में नज़रें घुमाने पर गोरे दिखते हैं, चीनी-जापानी दिखते हैं, भारतीय दिखते हैं, मगर कालों का दिखना दुर्लभ ही होता है।

मिला-जुलाकर भारतीयों के मन में काले लोगों की एक सामान्य छवि यही बनती है कि काले लोग पिछड़े हैं, गोरों या भारतीयों की तरह सभ्य नहीं, गोरों और भारतीयों की तरह संपन्न नहीं।

पर पिछले एक हफ़्ते में दो दिन ऐसे आए जब लगा कि कहीं कुछ बदल रहा है शायद।

पहली घटना - रात का समय, मैं दफ़्तर से घर जा रहा हूँ, ट्रेन में इक्के-दुक्के लोग बैठे हैं, सामने की सीट पर एक काला व्यक्ति बैठा है, 40 के आस-पास की उम्र है, वो एक किताब पढ़ रहा है, पूरी तन्मयता के साथ, तमाम स्टेशन आए, वो पढ़ता ही रहा, फिर एक स्टेशन पर उसने किताब बंद की, बाहर निकला, ट्रेन चल पड़ी, मैंने खिड़की से देखा, वो किताब पढ़ते-पढ़ते ही प्लेटफॉर्म पर बाहर के दरवाज़े की ओर बढ़ रहा है।

दूसरी घटना - दिन का समय, मैं घर से दफ़्तर जा रहा हूँ, प्लेटफ़ॉर्म पर थोड़ी भीड़ है, ट्रेन सात-आठ मिनट बाद आएगी, बगल में खड़ा एक काला व्यक्ति एक किताब पढ़ रहा है, तन्मयता के साथ, लोग आ रहे हैं-जा रहे हैं, वो किताब पढ़े जा रहा है, ट्रेन आ रही है, वो तब तक पढ़ना बंद नहीं करता जब तक ट्रेन बिल्कुल रूक नहीं जाती, वो ट्रेन के भीतर जाता है, फिर से पढ़ाई में जुट जाता है।

दोनों कालों के हाथ में जो किताब थी, उसका शीर्षक था -"ड्रीम्स फ़्रॉम माई फ़ादर Dreams From My Father" - एक आत्मकथात्मक संस्मरण, उस व्यक्ति का, जो नए साल के पहले महीने की 20 तारीख़ से वाशिंगटन के व्हाइट हाउस में डेरा डालने जा रहा है।

पाँच नवंबर को उसकी जीत को चहुँओर बदलाव का नाम दिया गया। अमरीका से उठी बदलाव की वो बयार लंदन में बहती दिखाई दे रही है, निश्चित ही दूसरी जगहों पर भी बह रही होगी।

Friday 14 November 2008

पर्दे पर चाय-पानी पिलानेवाले वे बच्चे

"शाहरूख़ ख़ान - म्च्च, दम है बॉस, मैं तो बस स्वदेस के उस एक सीन के बाद से ही उसका..."

"कौन सा? वो बच्चे वाला? जब वो ट्रेन से जा रहा है?"

जवाब हाँ ही है जो सुनाई नहीं, दिखाई देता है - सिर दाएँ-बाएँ हिलता है, आँखें चौड़ी हो जाती हैं, कुछ इस भाव से मानो मोहन भार्गव को पानी का कुल्हड़ थमाते उस बच्चे का वो दृश्य साकार हो उठा हो। सिर मेरे मित्र का था, आँखें भी उसी की थीं।

स्वदेस अधिकतर लोगों ने तो देखी ही होगी, और लंदन-अमरीका-कनाडा के भारतीयों और भारतवंशियों ने तो कर्तव्यभाव से देखी होगी।

दृश्य सचमुच सुंदर है - संवेदनशीलता जगाउ।

फिर एक और फ़िल्म आती है - तारे ज़मीन पर। उसका भी एक दृश्य है, आमिर ख़ान किसी ढाबे पर बैठे हैं, बच्चा चाय लेकर आ रहा है, और फिर अगले दृश्य में रामशंकर निकुंभ के साथ बैठकर चाय में बिस्कुट बोरकर खा रहा है।

एक और संवेदनशीलता जगाउ सीन। कईयों के लिए नैन-भिगाउ सीन।

मगर सिनेमाई दुनिया से बाहर आते ही संवेदनशीलता का ये स्विच सीधे ऑफ़ हो जाता है।

चाय-पानी पिलानेवाले किसी बच्चे को देखकर आँसू आते हैं? चलिए शुरूआत मैं ही करता हूँ - मेरी आँखों से नहीं आते।

बाल श्रम की बहस बेमानी है क्योंकि तमाम चीख-चिल्लाहट के बावजूद बाल-श्रम अभी ख़त्म तो हुआ नहीं? ख़तम हो जाता तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के नैन-भिगाउ सीन कहाँ से आते?

किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म में कभी किसी बच्चे को चाय-पानी पिलाते देखा है?

नहीं ना? तो फिर बाल-श्रम जब ख़त्म होगा तब होगा। अभी वो है, हर दिन दिखता है, हर तरफ़ दिखता है - चाय-पानी पिलाते हुए, रेल पटरियों पर कूड़ा बटोरते हुए, सभ्य घरों में बर्तन और फ़र्श चमकाते हुए।

क्यों नहीं आँखें भीजतीं इन बच्चों को देखकर? और हाँ ये बच्चे कोई - यादों की बारात - के कानों तक बाल बढ़ाए जूनिर आमिर ख़ान जैसे बच्चे नहीं हैं, जिनका पर्दे के बच्चों से कोई मेल ही ना हो। ये बच्चे तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के रियलिस्टिक बच्चे लगते हैं।

क्यों नहीं ऑन होता संवेदनशीलता का स्विच इन रियललाइफ़ बच्चों को देखकर?

जब सिनेमा का आविष्कार हुआ तो मैक्सिम गोर्की ने कहा था - "आज का मानव अपने दैनन्दिन जीवन की सामान्य घटनाओं से विशेष उद्दीपन महसूस नहीं करता। मगर इन्हीं घटनाओं की जब नाटकीय प्रस्तुति होती है तो उससे वही मानव हिल जाता है। मुझे भय है कि एक दिन चलचित्र की ये दुनिया, वास्तविक दुनिया पर भारी पड़ेगी और मानव के मन-मस्तिष्क पर अधिकार कर लेगी।"

कोई सौ साल पहले का गोर्की का भय सही था ना?

Thursday 13 November 2008

एक लेखकाना शाम

शाम हो रही है, जिस काम के लिए पाउंडरूपी पैसे मिलते हैं, वो काम ख़त्म है, ऑफ़िसिआए माहौल में कंप्यूटर के अमूर्त स्क्रीन या किसी ललना के मूर्त नैन निहारने, या फिर ईश्वरप्रदत्त बोलने-सुनने की सुविधा के सहारे परनिंदा-परचर्चा का सुख लेने की उमर रही नहीं - सो बिल्कुल समय पर उस दफ़्तर से स्वयँ को बाहर ढकेल लिया।

नवंबर है, हवा तेज़ है, सर्द है, लेकिन मन में ना जाने कहाँ से गुलज़ार की मीठी धूप वाला ख़याल आ गया, ठंड मीठी लगने लगी - समझ गया, आज दिल लेखकाना हो रहा है।

परिभाषानुसार और परंपरानुसार लेखकों की फ़ितरत भीड़ से अलग होनी चाहिए, तो भीड़ जहाँ दफ़्तर से चार क़दम दूर बसे रेलवे स्टेशन में घुसी जा रही थी, मुझमें समाए लेखक ने मुझे चार किलोमीटर दूर एक दूसरे रेलवे स्टेशन की ओर मोड़ दिया - होठों पर गुनगुनाहट, आँखों में ऑब्ज़र्वेशन, मस्तिष्क में सोच और आत्मा में लेखक को बसाए हम चल पड़े भीड़ से अलग, एक लेखकीय सफ़र पर।

स्टेशन आ गया, शाम का समय है, दफ़्तर छूटने का समय, कर्मरत प्राणी उस दिन के कर्म के संपादन के बाद रेलगाड़ियों की ओर भागे जा रहे है, डेली पैसेंजर्स गाड़ी किस प्लेटफ़ॉर्म पर लगी है ये पढ़ने के लिए भी नहीं रूकते, चलते-चलते ही स्क्रीन पढ़ लेते हैं, जो धुरंधर हैं वे भीड़ में भी आड़े-तिरछे होकर उसी कौशल से सरसराते आगे बढ़े जा रहे हैं जिसतरह पटना के बाकरगंज रोड पर लगे जाम के दौरान दो चक्कों वाले वाहनों के सवार तीन-चार चक्कों पर लदी सवारियों से आगे निकल जाते हैं।

अधिकतर लोगों के हाथ में शाम में बँटनेवाले मुफ़तिया अख़बार हैं, जिनमें एक-दो ख़बरें पढ़ने को और दसियों देखने को मिल जाती हैं, कोई उनको देखते-देखते चल रहा है तो कोई चलते-चलते उनको देख रहा है...और उस शाम को कुलबुलाया एक लेखक चल भी रहा है और देख भी रहा है - भीड़ की तरह अख़बार को नहीं, अख़बार थामी भीड़ को।

कोई भागनेवालों की निगाह में धीमे चल रहा है, तो कोई धीमे चलनेवालों की निगाह में भाग रहा है, लेकिन भीड़ ट्रेन की ओर बढ़ी जा रही है, उसमें वेग है, गति भी और दिशा भी।

मगर इस वेग के बीच एक जगह कुछ ठहरा हुआ दिखाई दे रहा है, भीड़ आगे जाकर थोड़ा दाएँ-बाएँ ख़िसक रही है, फिर वेगवान हो जा रही है।

थोड़ा समीप जाता हूँ, देखता हूँ, एक विकलांग है, आगे बढ़ रहा है, ठहर जा रहा है, उसका संतुलन नहीं बन पा रहा।

और आगे जाता हूँ, वो केवल शारीरिक विकलांग ही नहीं, दिमाग़ी तौर पर भी विकलांग है, कभी इधर देख रहा है, कभी उधर देख रहा है, मगर समझ में नहीं आ रहा, क्या देख रहा है, साथ कोई नहीं है।

मैं एक पल उसे देखता हूँ, सामने लगी घड़ी देखता हूँ, प्लेटफ़ॉर्म देखता हूँ, वहाँ खड़ी ट्रेन देखता हूँ, उसकी ओर लपकती भीड़ देखता हूँ, एक बार फिर घड़ी देखता हूँ - और सात मिनट बचे हैं ट्रेन के छूटने में।

मगर आज तो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं, जो सब करेंगे वो नहीं करना है, उसपर से सामने चारों ओर छितराए वैभव, आधुनिकता, विकास और सुंदरता को चुनौती देनेवाला एक कैरेक्टर खड़ा है, सभ्यजन क्या करते हैं, इसे देखने का इतना बड़ा अवसर क्या हाथ से जाने दिया जा सकता है - सामान्य दिन होता तो बात अलग थी, आज तो मेरे भीतर लेखक समाया था, उसने आगे बढ़ने से रोक दिया - ट्रेन जाती है तो जाए, आधे-एक घंटे देर ही होगी ना, अगली ट्रेन से ही सही।

मैं और मेरे भीतर समाया लेखक एक कोने में दीवार से सट गए, ऐसे जहाँ से विकलांग दिखाई भी दे, और भीड़ का रास्ता भी ना रूके।

भीड़निर्माता एक के बाद एक करते बढ़ रहे हैं, विकलांग भी बढ़ रहा है, रूक रहा है, लेकिन भीड़ का कोई भी अंश रूकना तो दूर ठिठक भी नहीं रहा। एक क्षण मेरे भीतर भी कर्तव्यबोध की टीस उठती है, कि लेखकीय चोले को त्याग उस विकलांग की सहायता की जाए, लेकिन एक तो कमज़ोर इच्छाशक्ति, दूसरा लेखकीय उत्कंठा - कि भीड़ क्या करती है, ये सोचकर मैं जहाँ हूँ वहीं बना हूँ।

विकलांग अचानक रूकता है, इस बार उसके ठीक बगल में एक भारतीय साहब खड़े हैं जिन्हें मैं देख रहा हूँ कि बड़ी देर से खड़े हैं, चेहरे पर अतिगंभीर भाव लिए, कभी अख़बार पलट रहे हैं, कभी टीवी स्क्रीन पर ट्रेनों की समयसारिणी देख रहे हैं, मगर पीछे नही् देख रहे जहाँ से विकलांग आ रहा था और अब उनके ठीक बगल में इधर-उधर सिर घुमाता, मुँह हिलाता खड़ा है।

भारतीय साहब ने नैनों के दृष्टि क्षेत्र के विस्तार में विकलांग को देखा, फिर इधर देखा-उधर देखने लगे और पन्ने पलटने लगे।

प्लेटफ़ॉर्म के ठीक गेट के पास खड़ी एक काली युवती भी बार-बार पीछे की ओर देख रही है, चेहरे पर दया है उसके, लेकिन समझ में नहीं आ रहा कि वो उस विकलांग को देखने के लिए पीछे मुड़ रही है और इस कारण द्रवित है, या किसी और को देखने के लिए पीछे मुड़ रही है और उसका चेहरा ही करूणामय है।

वो फ़ोन निकालती है, किसी से बात करती है, क्या कहती है पता नहीं, लेकिन फिर वो ट्रेन की ओर बढ़ जाती है। मतलब लगता तो यही है कि वो उस विकलांग को नहीं देख रही थी। मतलब ये भी कि जिनका चेहरा करूणामय हो, वो सचमुच करूण हों, ये ज़रूरी नहीं।

प्लेटफ़ॉर्म से पहले लगे गेट के पास नेवी ब्लू पैंट, स्काई ब्लू कोट और स्काई ब्लू टोपी लगाए, एक रेलवे कर्मचारी भी तो खड़ा है, वो क्यों नहीं कोई मदद कर रहा है उस विकलांग की। देख तो रहा है वो उसकी ओर? लेकिन हो सकता है पहले भी ऐसी स्थिति से पाला पड़ा हो उसका, क्योंकि चेहरा तो अनुभव से तपा हुआ लगता है उसका। ख़ैर वो जहाँ है वही हैं, मैं भी जहाँ हूँ वहीं हूँ। इस बीच वो भारतीय महाशय ट्रेन की ओर बढ़ चुके हैं, शायद घड़ी के सात बजाने की प्रतीक्षा कर रहे थे, सात बजे के बाद जाने पर डेढ़ पाउंड की बचत हो सकती है।

आख़िर वो विकलांग टिकट खिड़की की ओर बढ़ रहा है, इसका मतलब उसे इतना अंदाज़ा तो है कि जाना किस तरफ़ है, मैं एक निगाह खिड़की के पीछे बैठे रेल कर्मचारी पर डालता हूँ जो सामान्य अँग्रेज़ लग रहा है और जो विकलांग की ओर देख भी रहा है, लगता है कि वो उस विकलांग की सहायता अवश्य करेगा।

फिर में एक निगाह घड़ी पर डालता हूँ जो कह रही है कि केवल दो मिनट रह गए हैं ट्रेन छूटने में - फिर मैं भी आगे बढ़ जाता हूँ।

स्थिति वही है जो अंतिम समय में ट्रेन में चढ़ते हुए होती है - भीड़ - मैं भीड़ में समा जाता हूँ, एक सीट के बगल में खड़ा हो जाता हूँ, कुछ ही क्षणों में पीं-पीं-पीं-पीं के साथ दरवाज़ा बंद होता है, ट्रेन चल पड़ती है।

ट्रेन में अधिकांश लोग पढ़ रहे हैं, चुपचाप, कोई मुफ़तिया बँटनेवाला अख़बार तो कोई दफ़्तर से टीपा हुआ अख़बार, कोई नोवेल थामे बैठा है तो कोई मैगज़ीन, तो कोई आईपॉड से बरसती हुई धुन में मगन है।

मैं भी अपने बैग से निकालता हूँ कुछ पन्ने - निर्मल वर्मा की एक कहानी और बाबा नागार्जुन की एक कविता - 'नया ज्ञानोदय' के नवंबर अंक में छपी है, इंटरनेट पर फ़्री है, कुछ पन्ने छाप लाया हूँ।

भीड़ भी पढ़ रही है, मैं भी पढ़ रहा हूँ - पर पता नहीं क्यों आज उस लेखकाना शाम को लिखे जानेवाले और पढ़े जानेवाले शब्दों पर संदेह-सा हो रहा है।

Wednesday 8 October 2008

उल्टा तिरंगा और एक आम आदमी

आम धारणा है कि हमारे जैसे आमजनों की औकात रत्ती भर भी नहीं होती, कहने को लोकतंत्र है, लेकिन तंत्राधीशों से पाला पड़ते ही लोकतंत्र-वोकतंत्र चला जाता है तेल लेने! लेकिन पिछले दिनों कुछ अलग हुआ, एक आम आदमी ने तंत्राधीशों के पास गुहार लगाई, और ना केवल उसकी सुनवाई हुई, बल्कि कार्रवाई भी हुई, बल्कि बदले में आभार भी मिला।

कहानी कुछ यूँ बनती है कि पिछले महीने की एक शाम आम आदमी का खाना-वाना खाकर गाना-वाना सुनने का दिल आया,चैनलबाज़ी शुरू हुई, एक चैनल पर आकर रिमोट के बटनों पर जारी एक्यूप्रेशर बंद हुआ, पर्दे पर एक चैनल आकर ठहर गया, मुफ़्त चैनल है, सो पॉपुलर है। ब्रिटेन में भारतीय चैनलों को देखने के लिए सोचना भी पड़ता है, क्योंकि इसके लिए पैसे लगते हैं, तो सोचना तो पड़ता ही है, कि चैनल हर माह आपके दस पाउंड हड़प ले, इसका हक़दार है कि नहीं।

बहरहाल जिस चैनल की चर्चा हो रही है, वहाँ गानों पर गाने चल रहे थे, कभी द्रोणा-कभी फ़ैशन-तो कभी सज्जनपुर। और फिर वही हुआ जो अक्सर होता है,शुद्ध बंबईया गानों के बीच एक अशुद्ध म्यूज़िक वीडियो की घुसपैठ! अभिषेक-अक्षय-सलमान और प्रियंका-बिपाशा-करीना के गानों के बीच ना जाने कौन लोग, कहाँ के लोग, और क्या करते हुए लोग - आते हैं, नाच-गाकर भाग जाते हैं, आम आदमी को मजबूरन झेलना पड़ता है।

तो उस रात ऐसा ही हुआ, घुसपैठ हुई। जींस-टीशर्ट पहने और उल-जुलूल बाल बनाए या बिखेरे, दो लड़कों ने गाने की कोशिश शुरू कर दी, गाने के बोल थे - "लेट्स यू-एन-आई-टी-वाई, लेट्स पी-ए-आर-टी-वाई" - यानी आओ यूनिटी करें और पार्टी करें। और ये यूनिटी किसकी? भारत और पाकिस्तान की? यूटोपियाई सोच!!!

लड़के जहाँ गा रहे थे वो कोई छोटी हॉलनुमा जगह थी, कोट-पैंट-टाई में सज्जित लोग बैठे थे, चेहरों के भाव ऐसे, मानो गीत-संगीत की महफ़िल में नहीं विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की चर्चा के लिए बैठे हों। तो दीवार के साथ सटी कुर्सियों पर ये सज्जन बैठे थे, दीवारों पर दुनिया भर के एकता और मैत्री के राग अलापते पोस्टर और झंडे - तिरंगे,चाँद-तारे और यूनियन जैक। आगे कमर थिरकाते, गाने की कोशिश करते दो नौजवान - लेट्स यू-एन-आई-टी-वाई, लेट्स पी-ए-आर-टी-वाई!!!

तभी एक हाथ में भारत और पाकिस्तान का ध्वज लिए, कदमताल करती, छोटी स्कर्ट पहने, डांस करने को आतुर, थिरकती हुई दो बालाओं ने हॉल में प्रवेश किया...और...हा दुर्भाग्य - भारत का उल्टा तिरंगा!!!

बहरहाल उसी उल्टे तिरंगे को बाला ने पाकिस्तानी तिरंगे से यूँ छुआया जैसे राम-भरत गले मिल रहे हों।

आम आदमी को काटो तो ख़ून नहीं, इतनी भारी-भरकम जनता बैठी है, उनके सामने गाने की शूटिंग हुई, एडिटिंग हुई, चैनल से पास करवाया गया, अब एयर भी हो रहा है और किसी ने नहीं देखा! और ये तब जबकि गाने के असल हीरो भारत-पाकिस्तान हैं!!!

अगले दिन चैनल लगाया, फिर वही बेशर्म तमाशा चल रहा है। अब आम आदमी के आत्मसम्मान और आत्मगौरव का तो पता नहीं, मगर क्रोध ज़रूर जाग गया जो पिछले लंबे समय से बंबईया महफ़िलों में इन अज्ञातप्राणियों की घुसपैठ पर उबल रहा था।

आम आदमी ने भारतीय उच्चायोग की वेबसाइट खोली, वहाँ से पते जुटाए और एक ई-मेल लिखा - लंदन स्थित भारत के उच्चायुक्त को, उप-उच्चायुक्त को, ब्रिटेन के तमाम वाणिज्यिक दूतावास अधिकारियों को, सांस्कृतिक मंत्री को, हिंदी अधिकारी को और प्रेस अधिकारी को - घटना का वर्णन, चैनल का पता ठिकाना, और परिचय - एक आम भारतीय नागरिक।

ई-मेल भेज दिया गया, लेकिन उसका ना कोई लिखित जवाब आया ना ही ऑटोमेटेड जवाब...

दो सप्ताह बाद एक ई-मेल आया है भारतीय दूतावास से - "...आपको ये बताना है कि आपकी शिकायत के बाद हमने चैनलवालों से संपर्क किया, उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है और तत्काल गाने को हटा लिया है। आपने हमें इस घटना के बारे में बताया, हम इसके लिए आपके आभारी हैं..."

आम आदमी को एक पल के लिए लगा कि आम धारणा सत्य तो होती होगी ही, लेकिन उसे ध्रुवसत्य मान बैठते तो शायय ये ख़ास अनुभव ना होता।

Tuesday 7 October 2008

ब्रिटेन के आज़मगढ़ से एक डायरी

दो साल पहले, पहली बार ब्रिटेन के लीड्स शहर गया। नाम पहली बार बचपन में सुना था, क्रिकेट मैचों के दौरान, ऑल इंडिया रेडियो पर कमेंट्री सुनते समय। मगर तब लीड्स हो या लंदन, कोई अंतर नहीं पड़ता था, तब तो बस दोनों ही का नाम सुनते मन में एक ही छवि उभरती थी - क्रिकेट का हरा-भरा मैदान।

पर जब पहली बार लंदन से लीड्स पहुँचा तो दोनों ही शहरों की छवियाँ कुछ और रूप ले चुकी थीं - लंदन- जिसने बमों की मार सही और लीड्स- जिसने बम बरसानेवाले भेजे।

सात जुलाई 2005 को आतंकवाद के असुर ने लंदन पर पहली बार प्रहार किया, 50 से अधिक मासूमों को निगल गया, और ना केवल लंदन बल्कि सारे ब्रिटेन के माथे पर एक गहरा घाव छोड़ गया।

लीड्स गया था हमले की पहली बरसी पर रिपोर्टिंग करने, ये देखने कि कैसे झेल रहा है ये शहर अपने ऊपर लगे एक कलंक को, जो लगाया इसी की माटी पर खेलने-कूदनेवाले तीन युवकों ने। लंदन में तीन भूमिगत ट्रेनों और एक बस में धमाका कर मौत का तांडव रचनेवाले चार आत्मघाती हमलावरों में से तीन लीड्स के रहनेवाले थे।

लीड्स पहुँचकर पाया कि साल भर पहले लीड्स का जो मानमर्दन हुआ उसकी चोट गहरी पड़ी है। मुसलमान ही नहीं हिंदू भी परेशान हैं।

“हमने महसूस किया है कि अब यहाँ के लोग हमें ‘दूसरी’ निगाह से देखते हैं, उनके लिए तो हिंदू-मुसलमान-हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी एक ही जैसे हैं” – ये वाक्य ना जाने कितने ही लोगों को कहते पाया।

अब ये जो टिप्पणी थी,स्वयं को लाचार-बेचारा साबित करने की, वो एक क्षण के लिए स्वाभाविक लगी, कि ख़ामख़्वाह शरीफ़ लोग तंग हो रहे हैं। लेकिन जिस अंदाज़ में ये टिप्पणियाँ की जा रही थीं, उनमें एक ऐसी बात निहित थी जो इन तंग होने का दावा करते लोगों से ज़्यादा तंग करनेवाली थी। जो भी इस वाक्य का इस्तेमाल कर रहा था - कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है - वो बिना मुँह खोले ये प्रमाणित करना चाहता था कि वो मुसलमान नहीं है, पाकिस्तानी नहीं है, शरीफ़ है,शांतिप्रिय है। यानी - वो हिंदू है, भारतीय है।

और इसके साथ ही एक सवाल आ खड़ा हुआ - कि यदि चंद अपराधियों के कारण, कोई किसी को ‘दूसरी’ निगाह से देखता है तो इससे तो उनको भी परेशानी होनी चाहिए ना जो मुसलमान भी हैं, पाकिस्तानी भी हैं, शरीफ़ भी हैं, और शांतिप्रिय भी। वो क्या करें? भेदभाव क्या उनके साथ नहीं हो रहा?

और चलिए मान भी लिया कि ‘निगाह’ दूसरी है, तो? खोट 'दूसरी' निगाह से देखनेवाले में भी तो हो सकता है? हो सकता है, वो असहिष्णु हो, अज्ञानी हो, मूढ़ हो? और एक-दो ने 'दूसरी' निगाह से देख भी लिया तो क्या उसे सारे समाज की 'दूसरी' निगाह मान लेना ज़्यादती नहीं होगी?

मुझे लगा कि मासूम दिखने की चेष्टा करनेवाले ऐसे चतुर सज्जनों से कहूँ - कि आप ये जो स्वयं को मासूम, बल्कि दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ साबित करने का उपक्रम कर रहे हैं,उसमें इस बात का पूरा ख़तरा है कि कहीं विरासत में मिले संस्कारों का ही अंतिम संस्कार ना कर बैठें।

मुझे लगा कि उन्हें झकझोरते हुए बोलूँ - कि अगर ऐसी स्थिति आन पड़े कि वाल्मीकि-वशिष्ठ जैसे मुनि-महर्षियों से लेकर स्वामी विवेकानंद-गांधी जैसे महापुरूषों के वचनों और कर्मो से सजाई और संवारी गई संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने का प्रयास करना पड़े, तो खेद के साथ कहना पड़ता है कि सोच में कहीं खोट है।

मुझे लगा कि उनकी आँखों में आँख डालकर बताउँ - कि श्रेष्ठ पुरूषों को श्रेष्ठ आचरण भी करना पड़ता है। और श्रेष्ठता कैसी हो? स्वामी विवेकानंद की बताई उस सीख के जैसी – सदैव कहो अपने-आप से कि तुम श्रेष्ठ हो, मगर, दूसरे को हीन समझे बिना।

पर सारी बातें मन में रह गईं, लंदन लौटना था, भूख भी लग गई थी, रास्ते में एक पब दिखा, पब की असल छवि तो मदिरालय की है, लेकिन मुझे पब का खाना बड़ा अच्छा लगता है जो जेब और स्वाद दोनों के अनुकूल होता है। तो पब में घुसा, देखा हर किसी के हाथ में जाम है - क्या गोरा-क्या काला, क्या हिंदू-क्या मुसलमान। बरबस मधुशाला की एक पंक्ति याद आई -

“मुसलमान और हिन्दू हैं वो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला;
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद-मंदिर में जाते;
बैर बढ़ाते मस्जिद-मंदिर, मेल कराती मधुशाला.”