Friday, 1 February 2008

क्या मुस्कुराना भूल गया बिहार?

अँग्रेज़ी के महानतम लेखक शेक्सपियर के जन्मस्थान- ‘स्ट्रैटफ़र्ड-अपॉन-एवन’- से एक फ्रिज मैगनेट लेकर आया था जिसपर शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्फ़्थ नाइट’ की एक उक्ति लिखी थी – बेटर ए विटी फ़ूल दैन ए फ़ूलिश विट – समझदारी से की गई मूर्खता, मूर्खता से समझदारी दिखाने से बेहतर है।

इसी उक्ति पर पटना में अपने भाई के साथ चर्चा हो रही थी, मैंने कुछ मिनटों तक भाई को उस दिलचस्प उक्ति के बारे में समझाने की कोशिश की। वो बिल्कुल समझ गया, और कहा – एतना घुमाके बोलने का क्या ज़रूरत है, सीधे बोलिए ना भाई कि - ‘क़ाबिल’ नहीं बनना चाहिए!

गागर में सागर भरनेवाली ऐसी कितनी ही विशुद्ध बिहारी उक्तियों के रसास्वाद के लिए तरसते हैं विदेशों में बसे बिहारी।

ब्रिटेन में बिहारियों की संख्या कितनी है – बताना मुश्किल है। कोई जुगाड़ बैठाकर, गणित-विज्ञान आदि का सहारा लेकर अंदाज़ा लगाया जाए, इसमें भी कई पेचीदगियाँ हैं। फिर भी मोटा-मोटी बात की जाए तो चार चीज़ों से अंदाज़ा लग सकता है।

पहली बात ये कि अंतिम जनगणना के हिसाब से ब्रिटेन में बाहर के देशों से आकर बसे लोगों में आधे से अधिक एशियाई हैं। दूसरी कि इनमें सबसे अधिक संख्या है भारतीयों की, जो कोई साढ़े दस लाख है और जो ब्रिटेन की कुल आबादी का 1.8 प्रतिशत हिस्सा है। वैसे इनमें शुद्ध भारतीय नागरिकों की संख्या कम ही होगी, भारतीय मूल के लोग अधिक हैं। तीसरी बात ये कि इन भारतीयों में सबसे अधिक संख्या है गुजरातियों की, उनकी संख्या है साढ़े छह लाख। और चौथी बात ये कि जो बाक़ी बचे साढ़े चार लाख भारतीय हैं उनमें भी पंजाबियों की संख्या सर्वाधिक है। इसप्रकार बाद बाक़ी जो संख्या बचती होगी उसमें ही बिहारियों का अस्तित्व समाहित होगा।

ख़ैर उबाऊ आँकड़ों को परे रख सपाट भाषा में ब्रिटेन के बिहारी समुदाय को, अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक कहा जाए तो इसमें कोई ग़लती नहीं होगी।

पंजाब यहाँ आए दिन एशियाई बहुल इलाक़ों में किसी बीएमडब्ल्यू-मर्सीडिज गाड़ी के साउंड सिस्टम से निकलते अस्थिकंपक संगीत के रूप में दिख जाएगा; गुजरात यहाँ किसी भी जेनरल स्टोर के काउंटर पर खड़े विनम्र दूकानदार की मुस्कुराहट में मिल जाएगा; ब्रिक लेन नामक इलाक़े में रोहू और इलिश माछ की सुगंध के साथ बंगाल भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेगा और ईस्ट हैम जैसे इलाक़ों में सुपरस्टार रजनीकांत की फ़िल्मों के पोस्टरों के रूप में दक्षिण भारत का चेहरा भी दिख जाएगा; लेकिन बिहार उसी तरह ढूँढे नहीं मिलेगा जिसतरह यूपी,एमपी या ऐसे अन्य प्रदेशों का अस्तित्व।

वैसे बिहारियों की कमज़ोर उपस्थिति में अस्वाभाविक कुछ नहीं है क्योंकि गुजराती और पंजाबी समुदाय के लोगों का थोक संख्या में बाहर निकलना ब्रितानी राज के दौरान ही शुरू हो चुका था। तो पुराने वटवृक्ष से निकली शाखाओं से वटवंश का प्रसार तो होगा ही।

बिहार के लोग अभी बाहर निकल ज़रूर रहे हैं, लेकिन ज़्यादातर प्रवासी अभी प्रोफ़ेशनल हैं, पहली पीढ़ी के हैं, जिनकी दुनिया दफ़्तर में गिनती के सहकर्मियों और घर पर एकाध सदस्यों के बीच बतियाने तक सिमटी है। घर का असल मतलब तो उनके लिए अभी भी वही बिहार है, वही मोहल्ला, वही गलियाँ, वही सड़कें, वही माटी, जिनके आशीष या श्राप से वे सात समुंदर पार पहुँचे। देसी भाषा में, पहली पीढ़ी के बिहारी प्रवासियों में बिहार के लिए एक ‘टान’ ज़रूर बसता है।

बिहार से छुट्टियों के बाद लौटनेवाले हर बिहारी से अपेक्षा होती है कि वह साथी बिहारियों के लिए अनुभवों-क़िस्सों की मोटरी लेकर आएगा। नीतिश राज में कुछ बदला कि नहीं, क्राइम घटा कि नहीं, बिजली रहती है कि नहीं, ऐसी आम उत्कंठाओं को शांत करने के बाद बोनस जानकारियाँ दी जाती हैं; कि अब पटना में भी पित्ज़ा-बर्गर वाली फ़ास्ट-फ़ूड दूकानें खुल चुकी हैं, जहाँ जींसधारी बालाएँ दिल्ली-बंबई को टक्कर देती नज़र आती हैं; कि अब पटना में भी रेडियो मिर्ची पहुँच चुका है, आदि-इत्यादि।

लेकिन यात्रा-वृत्तांत बिना हास्यरसास्वाद के समाप्त नहीं होता; बेगूसराय वाले दोस्त को खोजकर बताई जाती है बात कि ज़ीरो माइल पर एक साइनबोर्ड दिखा- ‘दिलजले हेयर कटिंग सैलून’...ठहाके लगते हैं और फिर बात पुराने दिनों में लौट जाती है; बेगूसरायवासी मित्र बताता है कि छात्रावस्था के दौरान रवीना टंडन बेगूसराय में ख़ासी पॉपुलर थी, और हो सकता है उसी के किसी ‘दिलजले’ आशिक़ ने सैलून का नाम......बात ठहाकों में खो जाती है। बिहार शब्द प्रवासी बिहारियों के लिए जी को हल्का कर देनेवाली मुस्कुराहट बन जाता है।

लेकिन फिर पटना में अपने भाई की एक बात याद आती है – बाहर हो तो मज़ा आ रहा है, यहाँ रहोगे तो जिस बात पर हँसी आता है उसी पर चिल्लाओगे!

मैंने अचानक ग़ौर किया कि सचमुच वहाँ आम जनजीवन में मुस्कुराहट कम ही दिखती है। बैंक हो, सरकारी दफ़्तर हो, होटल हो, सिनेमाघर हो, ऑटो हो, रिक्शा हो – मुस्कुराते चेहरे कम ही दिख रहे हैं। कहीं तनाव दिखता है, कहीं विषाद, कहीं रोष, कहीं अहंकार, कहीं क्रोध, कहीं झल्लाहट। मुस्कुराकर बात करो तो भी कोई नहीं मुस्कुराता। जान-पहचान के बाहर ऐसा एक भी व्यक्ति याद नहीं पड़ता जिसने मुस्कुराकर बात की हो।

तो क्या वाकई सात समुंदर पार बैठे बिहारियों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरनेवाला बिहार मुस्कुराना भूल गया है, या मेरी ही नज़र धोखा खा गई।

(ये लेख पिछले वर्ष 'प्रभात ख़बर' के बिहार विशेषांक में छपा था। अगले सप्ताह पटना जा रहा हूँ, इस उम्मीद के साथ कि भगवान करे सचमुच ही मेरी नज़र एक साल पहले धोखा खा गई हो)