Wednesday, 12 March 2008

हॉकी का हाहाकार और हुआँ-हुआँ

देश में हॉकी पर हाहाकार मचा है, मीडिया मातमपुर्सी पर बैठ गया है, संसद के गलियारे में गुरूदास दासगुप्ता गिल को गलिया रहे हैं, सड़क पर अपना आम आदमी भी वॉक्स-पॉप देने के लिए ज़ोर लगाए हुए है।

मगर बोलेंगे तो कौन सी नई बात बोलेंगे? करिश्माई क्रिकेट और हताश हॉकी के बीच का भेद-भाव? खेल बनाम राजनीतिक दखलंदाज़ी? यही सब बातें उठेंगी ना? और फिर डिक्शनरी के उन्हीं घिसे-पिटे शब्दों में कसमसाती बहस बेनतीजा दम तोड़ देगी। इसका इतर किसी परिणाम की आशा जिन्हें हो, उनकी आशावादिता को शत्-शत् प्रणाम।

लेकिन ये भी है कि बहस से बचना, पलायन करने के समान है। और जब अमर्त्य सेन ने हम भारतीयों को - द आर्ग्युमेन्टेटिव इंडियन - की संज्ञा दे ही दी है, तो आर्ग्युमेन्ट किए बिना जान कैसे छूटेगी? अब ये अलग बात है कि जो हुआँ-हुआँ मची है, उसमें सारी हुआँओं का राग एक ही सुनाई दे रहा है - राग क्रंदन।

हुआँकारों से बस एक ही सवाल है - जो हुआ उसका अंदेशा क्या पहले से नहीं था?

एक समय था जब हॉकी टीम के सितारों - ज़फ़र इक़बाल, मोहम्मद शाहिद, थोएबा सिंह, विनीत कुमार, परगट सिंह, एम पी सिंह, सोमैय्या जैसे नाम, सुनील गावस्कर, कपिल देव, रवि शास्त्री, किरमानी, श्रीकांत, अज़हरूद्दीन जैसे नामों की ही तरह युवाओं में लोकप्रिय हों ना हों, अनसुने बिल्कुल नहीं होते थे।

जिस भक्तिभावना से क्रिकेट की कमेंट्री सुनी जाती थी, उसी आस्था से विश्व कप, ओलंपिक, चैंपियंस ट्रॉफ़ी जैसे हॉकी टूर्नमेंटों में भारत के मैचों के समय भी खेल प्रेमी, फ़िलिप्स-बुश-संतोष के ट्रांजिस्टरों से कान लगाए बैठे रहते थे।

आज - गुस्ताख़ी माफ़ हो, मगर बेशर्मी से लिख रहा हूँ कि एक प्रोफ़ेशनल मीडियामानव होने के बावजूद, मुझे स्वयं नहीं पता कि भारतीय टीम का कप्तान कौन है? धनराज पिल्लई के बाद दिलीप तिर्की के नाम तक याद है, लेकिन फिर हॉकी से मेरा वास्ता बस किसी मैच की कहानी बताने भर से रह गया है।

अभी भी जब हॉकी की बहस चल रही है, तो कारवाल्हो ने इस्तीफ़ा दिया-गिल ने नहीं दिया, इससे अधिक मुझे कुछ नहीं पता कि कौन कप्तान है, कि किसने कितने गोल मारे, और कि किसने कितने बचाए?

और ऐसे में हॉकी पर शर्म करने के बजाय, मुझे अपने आप पर शर्म आ रही है। लेकिन छिछले राष्ट्रवाद और झूठे आत्मगौरव के दौर में मैं भी हुआँ-हुआँ करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा।

पर आज इस हुआँ-हुआँ में अपनी हुआँ मिलाने के साथ-साथ, मैं अपने आप को इन सवालों से जूझता पा रहा हूँ - भारतीय हॉकी के अंतिम सुपरस्टार धनराज पिल्लई की जब बेमौक़े मूक विदाई हो गई - तब क्यों नहीं की हुआँ-हुआँ? जब साल भर पहले ओलंपियन विनीत कुमार ने कैंसर से लड़ते हुए दम तोड़ दिया और मीडिया में ये कोई ख़बर नहीं बनी - तब क्यों नहीं की हुआँ-हुआँ? चक दे इंडिया की सफलता के ठीक बाद, जब अपने किंग 'क्रिकेट' ख़ान दक्षिण अफ़्रीका में क्रिकेटरों के साथ गलबँहिया कर हॉकी को बेशर्मी से छका रहे थे - तब क्यों नहीं की हुआँ-हुआँ? जिस दिन ये पढ़ा अख़बार में, कि एक क्रिकेटर की मैच की कमाई 40 हॉकी खिलाड़ियों की मैच की कमाई के बराबर है - उस दिन क्यों नहीं की हुआँ-हुआँ? और हाँ, ये "एक क्रिकेटर= 40 हॉकी खिलाड़ी" - वाला आँकड़ा 10 साल पहले का है, अब तो शायद कैलकुलेटर भी तुलना करने में शर्मा जाए!

तो ख़ामोश बैठे, बरसों तलक मर्ज़ को मौत बनता देखते रहने के बाद, हुआँ-हुआँ करना है तो करें, लेकिन इतना याद रखें कि समय रहते हुआँ-हुआँ करते, तो आज राग कुछ और होता।

शायद राग क्रंदन के स्थान पर वो राग वंदन होता और शायद हम हुँआ-हुँआ नहीं, आँहु-आँहु करते झूम रहे होते!

3 comments:

Dr. Praveen Kumar Sharma said...

Is baare me mere vichaar aap se milate hai. likhane ke liye dhanyvaad.

राजीव जैन said...

आप से सहमत
अपन भी इस बारे में कुछ ऐसा ही सोचते हैं
देखें
http://shuruwat.blogspot.com/2008/03/blog-post_11.html

Anonymous said...

शायद कुछ खेल, खेल के मैदानों में ही अच्छे लगते हैं ....उनका उन्माद और आवेग टी.वी. या रेडियो पर पकड़ में नही आ पाता . क्रिकेट इस मामले में शायद भाग्यशाली है कि वो इन संचार-माध्यमों द्वारा काफी बेहतर तरीके से संप्रेषित हो जाता है तिसपर उम्दा कॉमेंट्री.....कभी दूरदर्शन के हिन्दी-उदघोषकों को सुनिए , वो अच्छे -खासे मैच को बोरिंग बना देते हैं.....खेल के स्तर की बात करने लायक मेरी हैसियत और जानकारी नही पर एक दर्शक के नाते मैं यही समझ पाया हूँ कि बाकी खेलों के मुकाबले क्रिकेट अपने भारत देश में नई तकनीक का अच्छा लाभ ले पाने में सफल रहा है जहाँ बाकी खेल कहीं पीछे रह गए हैं....
HPL देखिये ; मज़ा आता है उसमें.