Friday 14 November 2008

पर्दे पर चाय-पानी पिलानेवाले वे बच्चे

"शाहरूख़ ख़ान - म्च्च, दम है बॉस, मैं तो बस स्वदेस के उस एक सीन के बाद से ही उसका..."

"कौन सा? वो बच्चे वाला? जब वो ट्रेन से जा रहा है?"

जवाब हाँ ही है जो सुनाई नहीं, दिखाई देता है - सिर दाएँ-बाएँ हिलता है, आँखें चौड़ी हो जाती हैं, कुछ इस भाव से मानो मोहन भार्गव को पानी का कुल्हड़ थमाते उस बच्चे का वो दृश्य साकार हो उठा हो। सिर मेरे मित्र का था, आँखें भी उसी की थीं।

स्वदेस अधिकतर लोगों ने तो देखी ही होगी, और लंदन-अमरीका-कनाडा के भारतीयों और भारतवंशियों ने तो कर्तव्यभाव से देखी होगी।

दृश्य सचमुच सुंदर है - संवेदनशीलता जगाउ।

फिर एक और फ़िल्म आती है - तारे ज़मीन पर। उसका भी एक दृश्य है, आमिर ख़ान किसी ढाबे पर बैठे हैं, बच्चा चाय लेकर आ रहा है, और फिर अगले दृश्य में रामशंकर निकुंभ के साथ बैठकर चाय में बिस्कुट बोरकर खा रहा है।

एक और संवेदनशीलता जगाउ सीन। कईयों के लिए नैन-भिगाउ सीन।

मगर सिनेमाई दुनिया से बाहर आते ही संवेदनशीलता का ये स्विच सीधे ऑफ़ हो जाता है।

चाय-पानी पिलानेवाले किसी बच्चे को देखकर आँसू आते हैं? चलिए शुरूआत मैं ही करता हूँ - मेरी आँखों से नहीं आते।

बाल श्रम की बहस बेमानी है क्योंकि तमाम चीख-चिल्लाहट के बावजूद बाल-श्रम अभी ख़त्म तो हुआ नहीं? ख़तम हो जाता तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के नैन-भिगाउ सीन कहाँ से आते?

किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म में कभी किसी बच्चे को चाय-पानी पिलाते देखा है?

नहीं ना? तो फिर बाल-श्रम जब ख़त्म होगा तब होगा। अभी वो है, हर दिन दिखता है, हर तरफ़ दिखता है - चाय-पानी पिलाते हुए, रेल पटरियों पर कूड़ा बटोरते हुए, सभ्य घरों में बर्तन और फ़र्श चमकाते हुए।

क्यों नहीं आँखें भीजतीं इन बच्चों को देखकर? और हाँ ये बच्चे कोई - यादों की बारात - के कानों तक बाल बढ़ाए जूनिर आमिर ख़ान जैसे बच्चे नहीं हैं, जिनका पर्दे के बच्चों से कोई मेल ही ना हो। ये बच्चे तो स्वदेस और तारे ज़मीन पर के रियलिस्टिक बच्चे लगते हैं।

क्यों नहीं ऑन होता संवेदनशीलता का स्विच इन रियललाइफ़ बच्चों को देखकर?

जब सिनेमा का आविष्कार हुआ तो मैक्सिम गोर्की ने कहा था - "आज का मानव अपने दैनन्दिन जीवन की सामान्य घटनाओं से विशेष उद्दीपन महसूस नहीं करता। मगर इन्हीं घटनाओं की जब नाटकीय प्रस्तुति होती है तो उससे वही मानव हिल जाता है। मुझे भय है कि एक दिन चलचित्र की ये दुनिया, वास्तविक दुनिया पर भारी पड़ेगी और मानव के मन-मस्तिष्क पर अधिकार कर लेगी।"

कोई सौ साल पहले का गोर्की का भय सही था ना?

2 comments:

Shiv said...

चलचित्र की दुनियाँ असली दुनियाँ पर भारी पड़ ही रही है. तारे ज़मीन पर देखकर थियेटर से रोते हुए निकलने वाले लोग अपने बच्चों को कम्पीटीशन की दौड़ में सोंटे मारकर दौड़ा रहे हैं. ठीक वैसे ही अपनी सास से बात तक न करने वाली बहू टीवी पर 'प्रेरणा' की सास की दुर्गति देखकर रोती है.

अनामदास said...

अच्छा है.