Thursday 25 September 2008

अर्धसत्य के चप्पू चलाते हिंदू-मुसलमान

सच-झूठ-सच्चा-झूठा-सत्य-असत्य इनके बारे में बहुत सारे दोहे-मुहावरे-कहावत-सूक्तियाँ मिल जाते हैं लेकिन अर्धसत्य की बात कम होती है, बहुत हाथ-पाँव मारने पर भी केवल - अश्वत्थामा हतो वा - एक वहीं अर्धसत्य की बात दिखाई देती है।

पर क्या ये अजीब बात नहीं क्योंकि अर्धसत्य का क़द तो झूठ से भी बड़ा दिखाई देता है, अर्धसत्य को असत्य कहकर ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता, उसका अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता, वो जब चाहे तब, अपनी सुविधा से ढिठाई से खड़ा हो जाता है, सबको चिढ़ाता है।

अब देखिए ना, बम फटे नहीं, चर्चों पर हमले हुए नहीं कि सबने अर्धसत्य के चप्पू थामकर अपनी नैया चलानी शुरू कर दी, चाहे हिंदू हों चाहे मुसलमान।

मुसलमान कहे फिर रहे हैं -"साहब अंधेरगर्दी की इंतिहाँ है, हमारी क़ौम से जिसे चाहे उसे पकड़ ले रहे हैं, बेचारे पढ़ाई करनेवाले लड़के हैं, अँग्रेज़ी भी बोलते हैं, और ना कोई सबूत है ना सुनवाई, लैपटॉप-एके 47 - ये सब तो पुलिस जहाँ चाहें वहाँ डाल दे, जिन बेचारों को पकड़ा, उन्हें तो धकियाकर जो चाहे उगलवा लो। और मुठभेड़ के बारे में किसे नहीं पता है - वो तो बस फ़र्जी होते हैं, कश्मीर में हो चाहे दिल्ली में।"

और जो पुलिसवाला मारा गया?

"वो तो साहब कुछ इंटरनल राइवलरी होगी, पिछले दिनों एक और नहीं मारा गया था इसी तरह, नहीं तो आप बताइए कि इतना अनुभवी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट - बिना बुलेटप्रूफ़ के चला गया!"

"और साहब बम तो हिंदू भी फोड़ रहे हैं, बदनाम केवल हमें किया जाता है। आप ही सोचिए, मालेगाँव और हैदराबाद में मस्जिद के भीतर भला कोई मुसलमान बम फोड़ेगा?"

संदेह निराधार नहीं है, उसमें हो सकता है सच्चाई भी हो - लेकिन - हो सकता है कि नहीं भी हो।

हो सकता है कि मुठभेड़ फ़र्जी ना हो, हो सकता है कि लड़के बेक़सूर ना हों, हो सकता है कि आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त अधिकतर लड़के मुसलमान हों, हो सकता है कि मस्जिदों में बम वही का़तिल फोड़ रहे हैं जो पाकिस्तान से लेकर बसरा तक की मस्जिदों में फोड़ा करते हैं, और हो सकता है कि पढ़ने-लिखने के बावजूद कुछ लोगों का दिमाग़ वैसे ही अपराध के लिए प्रेरित होता है जैसे डॉक्टर ऐमन अल ज़वाहिरी का हुआ है या पायलट की अतिकठिन पढ़ाई करने के बाद विमानों को ट्रेड टावर से टकरानेवाले युवाओं का हुआ होगा।

ऐसे में ऐसे संदेहों को क्या समझा जाए? सत्य? असत्य? या - अर्धसत्य?

अब ज़रा हिंदुओं की सुनिए - "चर्च पर हमला ग़लत है, हिंसा ग़लत है, लेकिन उसकी शुरूआत कहाँ से हुई? स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को मारा तो उनके भक्त ग़ुस्सा नहीं होंगे? और ये जो क्रिश्चन-त्रिश्चन कर रहे हैं या मुस्लिम-तुस्लिम, आज से पाँच-छह सौ साल पहले ये लोग क्या थे? पैसे और तलवार के दम पर हुआ सारा धर्म परिवर्तन।"

यहाँ भी सवालों में सच्चाई हो सकती है - मगर किसी की हत्या पर ग़ुस्सा होना सामान्य बात है तो फिर कश्मीर-पूर्वोत्तर भारत-नक्सली भारत या फिर कहीं भी, किसी के भी - चाहे आतिफ़ हो चाहे असलम - उनके मारे जाने पर भी उनके क़रीबी लोगों का ग़ुस्साना स्वाभाविक नहीं होना चाहिए? और रहा प्रलोभन और ताक़त के दम पर होनेवाले धर्म परिवर्तन का, तो वो भी सच हो सकता है, लेकिन क्या ये सच नहीं कि धर्म बदलनेवाले अधिकतर हिंदू ऐसे थे जिन्हें हिंदू समाज में सिवा हिकारत के कुछ नहीं मिला।

ऐसे में हिंदुओं ने जो सवाल उठाए उन्हें क्या समझा जाए? सत्य? असत्य? या - अर्धसत्य?