दो साल पहले, पहली बार ब्रिटेन के लीड्स शहर गया। नाम पहली बार बचपन में सुना था, क्रिकेट मैचों के दौरान, ऑल इंडिया रेडियो पर कमेंट्री सुनते समय। मगर तब लीड्स हो या लंदन, कोई अंतर नहीं पड़ता था, तब तो बस दोनों ही का नाम सुनते मन में एक ही छवि उभरती थी - क्रिकेट का हरा-भरा मैदान।
पर जब पहली बार लंदन से लीड्स पहुँचा तो दोनों ही शहरों की छवियाँ कुछ और रूप ले चुकी थीं - लंदन- जिसने बमों की मार सही और लीड्स- जिसने बम बरसानेवाले भेजे।
सात जुलाई 2005 को आतंकवाद के असुर ने लंदन पर पहली बार प्रहार किया, 50 से अधिक मासूमों को निगल गया, और ना केवल लंदन बल्कि सारे ब्रिटेन के माथे पर एक गहरा घाव छोड़ गया।
लीड्स गया था हमले की पहली बरसी पर रिपोर्टिंग करने, ये देखने कि कैसे झेल रहा है ये शहर अपने ऊपर लगे एक कलंक को, जो लगाया इसी की माटी पर खेलने-कूदनेवाले तीन युवकों ने। लंदन में तीन भूमिगत ट्रेनों और एक बस में धमाका कर मौत का तांडव रचनेवाले चार आत्मघाती हमलावरों में से तीन लीड्स के रहनेवाले थे।
लीड्स पहुँचकर पाया कि साल भर पहले लीड्स का जो मानमर्दन हुआ उसकी चोट गहरी पड़ी है। मुसलमान ही नहीं हिंदू भी परेशान हैं।
“हमने महसूस किया है कि अब यहाँ के लोग हमें ‘दूसरी’ निगाह से देखते हैं, उनके लिए तो हिंदू-मुसलमान-हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी एक ही जैसे हैं” – ये वाक्य ना जाने कितने ही लोगों को कहते पाया।
अब ये जो टिप्पणी थी,स्वयं को लाचार-बेचारा साबित करने की, वो एक क्षण के लिए स्वाभाविक लगी, कि ख़ामख़्वाह शरीफ़ लोग तंग हो रहे हैं। लेकिन जिस अंदाज़ में ये टिप्पणियाँ की जा रही थीं, उनमें एक ऐसी बात निहित थी जो इन तंग होने का दावा करते लोगों से ज़्यादा तंग करनेवाली थी। जो भी इस वाक्य का इस्तेमाल कर रहा था - कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है - वो बिना मुँह खोले ये प्रमाणित करना चाहता था कि वो मुसलमान नहीं है, पाकिस्तानी नहीं है, शरीफ़ है,शांतिप्रिय है। यानी - वो हिंदू है, भारतीय है।
और इसके साथ ही एक सवाल आ खड़ा हुआ - कि यदि चंद अपराधियों के कारण, कोई किसी को ‘दूसरी’ निगाह से देखता है तो इससे तो उनको भी परेशानी होनी चाहिए ना जो मुसलमान भी हैं, पाकिस्तानी भी हैं, शरीफ़ भी हैं, और शांतिप्रिय भी। वो क्या करें? भेदभाव क्या उनके साथ नहीं हो रहा?
और चलिए मान भी लिया कि ‘निगाह’ दूसरी है, तो? खोट 'दूसरी' निगाह से देखनेवाले में भी तो हो सकता है? हो सकता है, वो असहिष्णु हो, अज्ञानी हो, मूढ़ हो? और एक-दो ने 'दूसरी' निगाह से देख भी लिया तो क्या उसे सारे समाज की 'दूसरी' निगाह मान लेना ज़्यादती नहीं होगी?
मुझे लगा कि मासूम दिखने की चेष्टा करनेवाले ऐसे चतुर सज्जनों से कहूँ - कि आप ये जो स्वयं को मासूम, बल्कि दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ साबित करने का उपक्रम कर रहे हैं,उसमें इस बात का पूरा ख़तरा है कि कहीं विरासत में मिले संस्कारों का ही अंतिम संस्कार ना कर बैठें।
मुझे लगा कि उन्हें झकझोरते हुए बोलूँ - कि अगर ऐसी स्थिति आन पड़े कि वाल्मीकि-वशिष्ठ जैसे मुनि-महर्षियों से लेकर स्वामी विवेकानंद-गांधी जैसे महापुरूषों के वचनों और कर्मो से सजाई और संवारी गई संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने का प्रयास करना पड़े, तो खेद के साथ कहना पड़ता है कि सोच में कहीं खोट है।
मुझे लगा कि उनकी आँखों में आँख डालकर बताउँ - कि श्रेष्ठ पुरूषों को श्रेष्ठ आचरण भी करना पड़ता है। और श्रेष्ठता कैसी हो? स्वामी विवेकानंद की बताई उस सीख के जैसी – सदैव कहो अपने-आप से कि तुम श्रेष्ठ हो, मगर, दूसरे को हीन समझे बिना।
पर सारी बातें मन में रह गईं, लंदन लौटना था, भूख भी लग गई थी, रास्ते में एक पब दिखा, पब की असल छवि तो मदिरालय की है, लेकिन मुझे पब का खाना बड़ा अच्छा लगता है जो जेब और स्वाद दोनों के अनुकूल होता है। तो पब में घुसा, देखा हर किसी के हाथ में जाम है - क्या गोरा-क्या काला, क्या हिंदू-क्या मुसलमान। बरबस मधुशाला की एक पंक्ति याद आई -
“मुसलमान और हिन्दू हैं वो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला;
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद-मंदिर में जाते;
बैर बढ़ाते मस्जिद-मंदिर, मेल कराती मधुशाला.”
1 comment:
सही कहा जी.
Post a Comment