Tuesday 25 November 2008

दिख रही है बदलाव की बयार

लंदन में बीयर की गिलास थामे गोरों के साथ कॉरपोरेटिआए अंदाज़ में बतियाते कॉन्फ़ि़डेन्ट देसी नौजवानों का दिखना सामान्य सी बात है।

लंदन में गोरियों के साथ लटपटाए ओवरकॉन्फ़िडेन्ट देसी नौजवानों का दिखना या गोरों के साथ खिखियाती देसी नवयुवतियों का दिखना भी सामान्य सी बात है।

लंदन में हेलो-थैंक्यू-नो प्रॉब्लेम टाइप के शब्दों से सज्जित ठेठ देसी अंग्रेज़ी में हैटधारी गोरे साहबों के साथ पिटपिटाते नॉन-कॉन्फ़ि़डेन्ट देसी भद्रजनों का दिखना भी एक सामान्य बात है।

लेकिन ऐसे देसी युवक-युवतियाँ-भद्रजन जिनके साथ बतिया रहे हैं, या लटपटा रहे हैं, उस किरदार का रंग गोरा ना होकर काला हो तो ये बात थोड़ी असामान्य होगी।

पता नहीं कद-काठी का भय है, या संस्कृति के अंतर से उपजा विलगाव, या भीतर कहीं समाया रंगभेद या फिर गोरे रंग के लिए जीन में दबा पड़ा दासता का भाव - ब्रिटेन में काले लोगों से भारतीयों की बहुत नहीं बनती - ये बात काले भी समझते हैं, भारतीय भी।

भारतीयों को दिखाई देता है कि झाड़ू लगाने, कचरा उठाने, टॉयलेट साफ़ करने, पहरेदारी करने जैसे ग़ैर-तकनीकी कामों में जितनी संख्या में काले हैं उतने दूसरे नहीं।

दफ़्तरों में कहीं कोई काला नहीं दिखता जो किसी बड़ी ज़िम्मेदारी वाले पद पर बैठा हो, जेनरल स्टोर्स में भी काउंटर पर अपने गुज्जू-पंजाबी दिखाई देते हैं या तमिल-बांग्लादेशी।

कुल मिलाकर जिस मोटे तरह से कहा जा सकता है कि भारतीय क्या काम करते हैं, या पाकिस्तानी-बांग्लादेशी क्या काम करते हैं, या तमिल-सिंहला, या गोरे, उस मोटे तौर से कहना बड़ा मुश्किल है कि काले लोग क्या काम करते हैं।

दूसरी तरफ़ मार-धाड़-ख़ून-ख़राबे की घटनाओं के साथ काले लोगों की छवि वैसे ही जुड़ी है जिस तरह से भारत में बम धमाकों के साथ मुसलमानो की छवि।

फिर कमर और घुटनो के बीच जाँघ के किसी हिस्से पर पैंट लटकाकर रंग-बिरंगे अंडरवियरों की प्रदर्शनी करने की कला के कारण भी काले भारतीयों की निगाहों में कलंकित होते रहते हैं।

और भारतीयों को तेल में सीझे और सने खाने की दूकानों के अस्वास्थ्यकर व्यंजनों का उपभोग करते जिसतरह से काले दिखाई देते हैं उसतरह से दूसरे नहीं दिखाई देते।

और पढ़ाई-लिखाई का मामला हो, तो हर बार अख़बार में कोई ना कोई भारतीय चेहरा दिख जाएगा मैट्रिक-इंटर(जीसीएसई-ए लेवल) की परीक्षाओं के टॉपरों की सूची में, मगर काले छात्र-छात्राओं के चेहरे दिखें, इस बात की संभावना कम ही रहती है।

ट्रेनों में भी जिस तरह से गोरे साहब-मेम या अपने देसी लोग अख़बार-मैग्ज़ीन-किताब पढ़ते नज़र आ जाते हैं, उस तरह से काले तो कभी नहीं दिखते, बहुत हुआ तो मुफ़तिया या किसी के छोड़े हुए अख़बारों को पलटते दिखाई दे जाएँगे काले पैसेंजर।

और हाँ, घूमने-घामने की जगहें हों, जहाँ पर्यटकों की भरमार हो, वहाँ भी भीड़ में नज़रें घुमाने पर गोरे दिखते हैं, चीनी-जापानी दिखते हैं, भारतीय दिखते हैं, मगर कालों का दिखना दुर्लभ ही होता है।

मिला-जुलाकर भारतीयों के मन में काले लोगों की एक सामान्य छवि यही बनती है कि काले लोग पिछड़े हैं, गोरों या भारतीयों की तरह सभ्य नहीं, गोरों और भारतीयों की तरह संपन्न नहीं।

पर पिछले एक हफ़्ते में दो दिन ऐसे आए जब लगा कि कहीं कुछ बदल रहा है शायद।

पहली घटना - रात का समय, मैं दफ़्तर से घर जा रहा हूँ, ट्रेन में इक्के-दुक्के लोग बैठे हैं, सामने की सीट पर एक काला व्यक्ति बैठा है, 40 के आस-पास की उम्र है, वो एक किताब पढ़ रहा है, पूरी तन्मयता के साथ, तमाम स्टेशन आए, वो पढ़ता ही रहा, फिर एक स्टेशन पर उसने किताब बंद की, बाहर निकला, ट्रेन चल पड़ी, मैंने खिड़की से देखा, वो किताब पढ़ते-पढ़ते ही प्लेटफॉर्म पर बाहर के दरवाज़े की ओर बढ़ रहा है।

दूसरी घटना - दिन का समय, मैं घर से दफ़्तर जा रहा हूँ, प्लेटफ़ॉर्म पर थोड़ी भीड़ है, ट्रेन सात-आठ मिनट बाद आएगी, बगल में खड़ा एक काला व्यक्ति एक किताब पढ़ रहा है, तन्मयता के साथ, लोग आ रहे हैं-जा रहे हैं, वो किताब पढ़े जा रहा है, ट्रेन आ रही है, वो तब तक पढ़ना बंद नहीं करता जब तक ट्रेन बिल्कुल रूक नहीं जाती, वो ट्रेन के भीतर जाता है, फिर से पढ़ाई में जुट जाता है।

दोनों कालों के हाथ में जो किताब थी, उसका शीर्षक था -"ड्रीम्स फ़्रॉम माई फ़ादर Dreams From My Father" - एक आत्मकथात्मक संस्मरण, उस व्यक्ति का, जो नए साल के पहले महीने की 20 तारीख़ से वाशिंगटन के व्हाइट हाउस में डेरा डालने जा रहा है।

पाँच नवंबर को उसकी जीत को चहुँओर बदलाव का नाम दिया गया। अमरीका से उठी बदलाव की वो बयार लंदन में बहती दिखाई दे रही है, निश्चित ही दूसरी जगहों पर भी बह रही होगी।

3 comments:

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं-एक क्रांति सी है इस बदलाव में. शायद सेन्स ऑफ रिस्पान्सबेलिटि का भी कुछ रोल हो मगर है तो जरुर.

अच्छा विश्लेषण.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया मंथन किया है।

Anonymous said...

आश्चर्य कि आपके विपुल शब्द-भण्डार में से 'अश्वेत' शब्द प्रयुक्त नही हो पाया !! सावधान ; रंगभेदी मन कहीं आपके अंदर भी तो नही ??. दुआ के कोई सनकी वकील आपके ब्लॉग का पाठक न हो .
अश्वेतों की चेतना से ज्यादा भारतियों से उनके कम मेलजोल वाला हिस्सा ज्यादा मजबूत है.इसपर ज्यादा लिखा भी नही गया , इस विषय पर और लिखें तो हमारा ज्ञानवर्धन होगा..