नए साल पर अधिकतर बहस पीने-पिलाने की बढ़ती परिपाटी को लेकर चल रही है तो आइए पहले एक दिलचस्प वाक़ए से ही शुरूआत करें...
घटना पाकिस्तान की है। पाकिस्तान के जन्म से लेकर उसके सठियाने तक की उम्र तक के गिने-चुने लोकप्रिय राजनेताओं में से एक थे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो। भुट्टो साहब ज़मींदार घराने से आते थे, विलायत की हवा खा चुके थे, तो शराब अपने-आप ज़िंदगी का हिस्सा बन गई। स्कॉच व्हिस्की उनकी फ़ेवरिट थी।
राजनीति में भुट्टो साहब ने एक साथ मुल्लों को भी ललकारा और मिलिटरी को भी। लोकप्रियता का आलम ये था कि जनता उनके साथ थी, मुल्लों को भी डर लगा और मिलिटरी को भी। तो साम-दाम-दंड-भेद का ज़ोर लगने लगा, भुट्टो को दबाने के लिए।
मुल्लों ने भुट्टो के ख़िलाफ़ हवा बनानी शुरू की - शराब पीने जैसा कुफ़्र करनेवाला इस्लाम की हिफ़ाज़त कर सकेगा?
लाहौर में एक रैली हुई। और भाषणकला के माहिर भुट्टो ने वहाँ मुल्लों पर जवाबी वार किया। बोले - "वो कहते हैं मैं शराब पीता हूँ।...हाँ, मैं खुलेआम ये कहता हूँ कि मैं शराब पीता हूँ।...लेकिन...वे क्या पीते हैं?...वे तो इंसानों का ख़ून पीते हैं!"
जनसैलाब अपने नेता की हाज़िरजवाबी पर लुट गया। नया नारा ही बन गया - जीवे-जीवे भुट्टो जीवे...पीवे-पीवे भुट्टो पीवे...
भुट्टो जीते मगर जी नहीं सके। मिलिटरी ने उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया।
घटना बताने के पीछे मेरा उद्देश्य एक सवाल को खड़ा करना है - क्या शराब पीने भर से ही किसी को अच्छा या ख़राब घोषित किया जाना चाहिए? क्या एकमात्र इसी आधार पर किसी को पसंद-नापसंद करनेवाले अपने आप मुल्लों की जमात में खड़े नहीं हो जाते?
शराबख़ोरी को अच्छा-बुरा ठहराने पर बहस की आवश्यकता है ही नहीं। सिगरेट-शराब एक व्यसन है, व्यसन अच्छी चीज़ नहीं होती, ये सिगरेट-शराब के पैकेटों पर वैधानिक चेतावनियाँ पढ़ने के बाद उनका सेवन करनेवाला भी जानता है, नहीं करनेवाला भी जानता है। ये बेबहस सत्य है। ऐसा तो कतई नहीं कि इस नए साल पर शुरू कर दी गई बहस से पहले ये बात किसी को पता नहीं थी।
मगर इस सत्य से बड़ा एक ध्रुवसत्य ये है - अति सर्वत्र वर्जयेत। कोई भी चीज़ एक सीमा में ही अच्छी लगती है। फिर चाहे शराब पीने की अति हो, या मुल्लों की मौलवीगिरी की या पंडितों की पंडिताई की - फ़र्क़ नहीं पड़ता।
शराब के नशे पर बहस करने से अधिक आवश्यक है आज दूसरे नशों पर बहस करने की जिनकी तुलना में शराब के नशे का असर कुछ भी नहीं।
वो है - मैटेरियलिज़्म यानी भौतिकतावाद का नशा और फंडामेन्टलिज़्म यानी कठमुल्लावाद का नशा। इनका नशा आज सबपर भारी पड़ रहा है। और इनकी जब अति होने लगे तो इंसान झूमता नहीं, अंधा हो जाता है।
और दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही एक साथ फल-फूल रहे हैं, जिस कोलकाता और हैदराबाद में आज सॉफ़्टवेयर प्रोफ़ेशनलों का जमघट लगा है, उसी कोलकाता-उसी हैदराबाद में तस्लीमा नसरीन पर हमले होते हैं।
नववर्ष पर यही प्रार्थना करता हूँ कि सुख-साधन का गागर, सागर बने ना बने, मानवता का वृक्ष हरा-भरा रहे. उसके लिए तो ना गागर चाहिए-ना सागर...
नववर्ष पर बच्चन जी की पंक्तियाँ आपके साथ बाँटता चलूँ -
"मैं देख चुका था मस्जिद में,
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज
पर मेरी इस मधुशाला में,
पीता दीवानों का समाज
वह पुण्य कर्म, यह पाप कृत्य
कह भी दूँ - तो दूँ क्या सुबूत
कब मस्जिद पर कंचन बरसा
कब मदिरालय पर गिरी गाज?"
2 comments:
बहुत अच्छा लिखा है
ब्लाग की दुनियां में स्वागत है आपका
अनुराग जी धन्यवाद, आपके ब्लॉग तक पहुँचने की कोशिश की, मगर कोई माध्यम नहीं समझ आ रहा, नाम पर क्लिक करने से कुछ नया पन्ना नहीं खुलता...
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