दो दिन पहले इनबॉक्स में एक मेल आया, सब्जेक्ट में लिखा था - हैप्पी रिपब्लिक डे। भेजा मेरे एक ऐसे मित्र ने था, जिसके साथ मुझे पूरी तरह याद है, कि ना तो मैंने कभी 15 अगस्त मनाया था ना 26 जनवरी। लेकिन इस मेल ने देशभक्ति को लेकर मुझे धर्मसंकट में अवश्य डाल दिया।
देशभक्ति प्रदर्शन के ऐसे प्रतीकात्मक अवसरों पर धर्मसंकट और भी कई बार आए हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जब जन-गण-मन बज रहा हो, तो मुश्किल में पड़ जाता हूँ कि कैसी मुद्रा में रहूँ। सावधान होना सही होगा या कि, घर के सोफ़े पर मरे रहने, या दफ़्तर की कुर्सी पर पड़े रहने, की मुद्रा में बदलाव के बिना काम चल जाएगा। अभी तक दो तरह की राय मिली है। एक में हिकारत के साथ त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा गया -सोचना क्या है, बिल्कुल खड़े हो जाना चाहिए! दूसरे में शरारत के साथ मुस्कुराते हुए काट सुझाई गई - छत के नीचे खड़े होने पर ये नियम नहीं लागू होता है!
बहरहाल, याद नहीं पड़ता कि स्कूल में इस बारे में कोई नियम क़ानून सिखाया गया था। और भारत सरकार की राष्ट्रगान के बारे में आधिकारिक वेबसाइट पर भी जाकर चेक किया, वहाँ भी इस बारे में कुछ नहीं लिखा है, कि राष्ट्रगान बजे तो क्या करना चाहिए। ऐसी स्थिति में इस बार भी जब राष्ट्रगान बजा, असमंजस की स्थिति आई, और कोई फ़ैसला करूँ-करूँ, तबतक 52 सेकेंड निकल गए!
देशभक्ति-राष्ट्रगान-राष्ट्रीय प्रतीक ये सब एक गूढ़ पहेली वाले शब्द हैं हमारे समाज में। मातृभक्ति-पितृभक्ति-गुरूभक्ति-ईशभक्ति को तो सारे जहाँ को दिखा सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। लेकिन देशभक्ति का क्या किया जाए? सैनिक हों-सुरक्षाकर्मी हों तो कह सकते हैं, कि देश के लिए जान हाथ में लेकर घूमते हैं; खिलाड़ी हों-कलाकार हों, तो बोल सकते हैं कि देश की प्रतिष्ठा का भार कंधों पर उठाकर घूमते हैं।
लेकिन उनका क्या, जिन्होंने अपनी-अपनी दुनिया में चाहे जितना कुछ बटोर-समेट लिया है, लेकिन हैं वह उसी भीड़ का हिस्सा - जिसे आम जनता कहा जाता है; या दूसरे शब्दों में - जो ख़ास नहीं है; या सीधे शब्दों में - जो सेलिब्रिटी नहीं हैं; या कठोर शब्दों में - जो लाख माल-जंजाल बटोरने के बावजूद, पद-प्रतिष्ठा अर्जित करने के बावजूद, एनआरआई बनने या अमरीकन-ब्रिटिश पासपोर्ट लेने के बावजूद, हैं उतने ही आम, जितना कोई भी दूसरा आम आदमी होता है। आम आदमी का नाम नहीं होता है।
अब संकट इसी आम आदमी के भीतर की देशभक्ति का है। वो क्या करे कि देशभक्ति दिखे?
तो उसकी देशभक्ति दिखती है कभी क्रिकेट के मैदान में झंडा लपेटकर चिल्लाते हुए (बीयर चढ़ी हो, तो उत्साह भी परवान पर रहता है); तो कभी दिखती है स्वदेस और रंग दे बसंती देखकर सुबकते हुए(परिवार साथ रहे इस समय तो और अच्छा)।
और चिल्लाने और नाकभिंगाउ रूलाई से भी जी ना भरे, तो ई-देशभक्ति ज़िन्दाबाद! दुनिया भर की वेबसाइटों पर जाकर अपनी देशभक्ति उगलिए - कि भगत सिंह को भारत रत्न देना चाहिए और सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी से भी बड़े नेता थे, या और नहीं तो यही कि भारतीय टीम को देश की इज़्ज़त के लिए ऑस्ट्रेलिया से वालस लौट आना चाहिए!
इसके बाद देशभक्ति का असहनीय उफ़ान, जब थम जाए, तो फिर जो चाहे कीजिए। काला पैसा कमाइए, काले कारनामे कीजिए, कामचोरी कीजिए, पढ़ाई के समय लफंगई कीजिए, अपने ही देश की संपत्ति को चूना लगाइए, अपने ही किसी देशवासी का हक़ मारिए - सब चलेगा।
देशभक्ति दिखाने का मौक़ा तो फिर आएगा ही - इंडिया-पाकिस्तान मैच, कोई और देशभक्ति वाली फ़िल्म, 15 अगस्त...26 जनवरी - हैप्पी रिपब्लिक डे!हैप्पी इंडिपेंडेंस डे!
पुनश्चः वैसे ये अलग बात है कि जन-गण-मन मैं अक्सर गुनगुनाता रहता हूँ, मुझे इसका सुर बड़ा अच्छा लगता है।(एक दो बार तो बाथरूम में भी गुनगुना पड़ा था कि स्थान का भान होने पर तुरंत थम गया) कैप्टेन राम सिंह ठाकुर का तैयार किया ओरिजिनल धुन शानदार है ही। कभी सुनकर देखिए ए आर रहमान के कम्पोज़्ड जन-गण-मन एलबम को। भारतीय शास्त्रीय संगीत के तमाम दिग्गज नामों ने, आठ रागों में, राष्ट्रगान को गाया और बजाया है। देशभक्ति अपनी जगह होगी, लेकिन यहाँ अलग-अलग आवाज़ों और साज़ों में जन-गण-मन को सुनने पर, वह एक ओजस्वी राष्ट्रगान से अधिक एक मधुर संगीतमय कृति के जैसा लगता है। एक सुंदर अनुभूति।
आप भी सुनिए रहमान का जन-गण-मन एलबम
3 comments:
हमारे यहाँ बिहार प्रदेश में नक्सली पंथ के माननेवालों ने एक गाँव के हाई-स्कूल में एक रात पहले ही काला झंडा इस चेतावनी के साथ फ़हरा दिया था कि जिसने भी इसे उतारा उसको परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए....वो २६-जनवरी को शोक-दिवस के रूप में मना रहे थे....उन्हें क्या कहें अब गद्दार !!! क्या वो देशभक्त नही हैं ? मेरे ख़याल से देशभक्ति के लिए हमें वो सबकुछ करना चाहिए जिससे कि किसी को भी बेगानेपन का एहसास न हो , उसे न लगे कि उसे भुला दिया गया है : उसकी पीड़ा से आर्त हैं उसके देशवासी इसका उसे एहसास हो , कोई काला झंडा न लगाए .....
जैसा कि मैं समझता हूँ किसी के सम्मान में खड़े होना सहज मानवीय स्वभाव है ...जिस दिन हमें अपने अंतर्मन में अपने देश और अपने राष्ट्रगान के लिए सम्मान का एहसास हो जाएगा हम स्वतः ही खड़े हो जाएँगे , कुर्सियों में चिपक जाना ये बताता है कि अभी हम भारतीयों द्वारा अपने देश को अपने ही देशवासियों का सम्मान दिलाने के लिए बहुत कुछ करना शेष है...
shivani, New Delhi
bahut alag soch hai. shayad aisi hi soch ki aaj hume sabse jyada jarrorat hai. kuchh hat k likhna hi writer ki achhi pehchan hoti hai, kyonki dekhte sab hain, lekin mahsoos kar k use shabd dena har kisi k bas me nahi hota. It's a gud effort. keep continue, best of luck.
shivani, New Delhi
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