"पता नहीं क्या समझता है अपने-आपको" - अभिनव बिन्द्रा के बारे में मेरी ये राय छह साल तक रही, अब उस राय पर मुझे संदेह हो रहा है। मगर इसलिए नहीं कि उसने देश का नाम रोशन किया, तिरंगे की लाज रखी, राष्ट्रगान बजवाया, और तथाकथित रूप से एक अरब से भी अधिक लोगों का मस्तक ऊँचा करवाया।
मुझे अपनी राय पर संदेह किन्हीं और कारणों से हो रहा है, ठीक उन्हीं कारणों से, जो अभिनव बिन्द्रा के ख़िलाफ़ जाते हैं।
जो सबसे बड़ी बात अभिनव बिन्द्रा के ख़िलाफ़ जाती है, वो ये, कि वो एक अत्यंत ही अमीर घर का लाड़ला है, उसने मेडल जीत ही लिया तो क्या? और जीता भी तो ऐसे खेल में जो, बकौल श्रद्धेय अफ़लातून जी के, राजा टाइप लोगों का खेल है।
मैं भी ऐसी ही राय रख रहा था, बहुतों ने तो ओलंपिक में अभिनव की जीत के बाद पत्र-पत्रिकाओं-टीवी पर उसकी पृष्ठभूमि पढ़ने-देखने के बाद अभिनव के बारे में एक नकारात्मक राय बनाई होगी, मैं तो छह साल से बनाए हुए था। मगर पता नहीं कब, अनायास कुछ सवालों ने आ घेरा -
कि अभिनव अगर अमीरज़ादा है तो क्या एक अरब वाले देश में वो अकेला अमीरज़ादा है?
कि अभिनव अगर राजा साहब टाइप है, तो क्या वो ऐसा अकेला राजा साहब टाइप है, बनारस से लेकर बलिया तक में ऐसे राजा साहब नहीं होते?
कि अभिनव की निशानेबाज़ी अगर रईसी का उदाहरण है, तो उसकी निशानेबाज़ी और सलमान-सैफ़-पटौदी साहब की निशानेबाज़ी में क्या कोई अंतर नहीं?
कि अभिनव के पिता यदि ये कहते हैं कि वो बचपन में नौकरानी के सिर पर गुब्बारे फोड़ता था, तो क्या अपनी औलाद के बारे में ऐसी डींग मारनेवाले उसके पिता ऐसे अकेले पिता हैं, टीवी पर गाना गानेवाले अपने नकलची बच्चों को देख सुबकते माता-पिता को क्या कहिएगा, अकेले बिन्द्रा साहब को धृतराष्ट्र की पदवी क्यों? फिर घर में नौकरों को उनकी हैसियत समझानेवाले बिन्द्रा साहब क्या ऐसे अकेले साहब हैं?
कि अभिनव को अगर अपने घर के कुत्तों की याद आती है, तो क्या श्वानों के प्रति ऐसा वात्सल्य रखनेवाला अभिनव अकेला व्यक्ति है?
कि अभिनव ने अगर विदेश में रहकर पैसे फूँककर ट्रेनिंग की, तो पैसे के बल पर विदेशों में रहकर शिक्षण-प्रशिक्षण करनेवाला क्या वो अकेला व्यक्ति है?
कि अभिनव ने अगर इंटरव्यू देते समय अकड़ दिखाई तो क्या ऐसी अकड़ दिखानेवाला वो अकेला सेलिब्रिटी है? सेलिब्रिटी तो दूर, ज़रा अपने इलाक़े के कलक्टर-डीएम-डीसी से ही बात करके देख लीजिए, अकड़ का अर्थ समझ में आ जाएगा।
ऐसे अमीर, ऐसे राजा साहब, ऐसे श्वानप्रेमी, ऐसे विदेशपठित-विदेशप्रशिक्षित लोग एक-दो नहीं हज़ारों और लाखों होंगे भारत में। लेकिन अभिनव बिंद्रा की गिनती उस भीड़ से अलग करनी होगी। अभिनव उन चंद लोगों में गिना जाना चाहिए जिसने अपनी संपन्नता को एक अर्थ दिया है। वो भारत का पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक विजेता है - ये बात इतिहास में दर्ज हो चुकी है, इतिहास ये नहीं देखता कि नायकों की पृष्ठभूमि क्या होती है, इतिहास देखता है, उसकी उपलब्धि को।
अभिनव की उपलब्धि पर छींटाकशी करना थोड़ी ज़्यादती लगती है, उसमें ख़ामियाँ हैं, ये सत्य है, लेकिन इस आधार पर उसे ख़ारिज़ कर देना एक दूसरे सत्य से मुँह चुराने के जैसा है। अभिनव के बहाने फिर वही टकराव का मनहूस रास्ता सामने खड़ा है जो पता नहीं किसी मंज़िल पर जाता भी है या नहीं? इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं कि दिल्ली और देहात की लड़ाई अभिनव के मेडल जीतने के बाद भी उसी जगह है, जिस जगह उसके मेडल जीतने से पहले थी, ऐसे में एक व्यवस्था पर चोट ना कर, किसी एक को निशाना बनाना, वो भी उसपर जिसने कुछ तो किया, ये थोड़ी छोटे दिल वाली सोच लगती है।
ये सवाल हमेशा खड़ा मिलता है - उपलब्धि किसकी बड़ी होनी चाहिए - उसकी, जिसके पास कुछ भी नहीं, या उसकी, जिसने बहुत कुछ छोड़ा।
जिनके पास कुछ नहीं, उनकी उपलब्धि की प्रेरणादायी कहानियों से हम हमेशा दो-चार होते हैं,अपनी हिम्मत-मेहनत-लगन से तकदीर बदलनेवालों की ऐसी कहानियाँ जीवन-पुरूषार्थ-कर्म के प्रति आमजनों के विश्वास को जीवित रखती हैं। मगर ग़ौर से देखा जाए तो कुछ हासिल करने के लिए- जिनके पास सबकुछ है - शायद उनको भी उतना ही संघर्ष करना पड़ता है जितना जिनके पास नहीं है उनको।
अभिनव अमीर है, स्मार्ट है, अंग्रेज़ीदां है, सेलिब्रिटी भी है - भौतिक सुखदायी ऐसे कौन से साधन हैं जो उसकी पहुँच से बाहर रहे होंगे? लेकिन उसने अपने आप पर नियंत्रण किया होगा, बहुत सारे प्रलोभनों पर विजय पाई होगी, अपनी संपन्नता को एक मक़सद दिया होगा, और तब जाकर उसने हासिल की, एक ऐसी उपलब्धि, जिसपर घरवाले जो कहना है कहें, बीजिंग में जुटे बाहरवाले एक उपलब्धि की निगाह से देखते हैं।
यदि मात्र संपन्नता से ही सबकुछ जुटाया जा सकता तो क्या आज धन्नासेठों की अट्टालिकाएँ स्वर्ण पदकों से नहीं चमचमा रही होती? अभिनव की उपलब्धि शायद गाँव-देहात में सिमटे लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती होगी, लेकिन आज के आधुनिक भारत का भार कंधे पर टाँगे टहल रहे युवाओं के लिए एक आदर्श बेशक बन सकती है।
सोचिए कि अगर दो-चार प्रतिशत धन्नासेठ भी अभिनव बिन्द्रा की ही तरह अपनी धन-दौलत ऐसी किसी किसी चीज़ में लगा दें, जिससे कि भारत को मेडल मिलता हो, तो उससे मेडल ही आएगा ना, वो मोटर-मोहिनी-मदिरा में तो ज़ाया नहीं होगा। और ऐसी कल्पना तो दिवास्वप्न ही होगी कि राजा टाइप लोग स्वयं ही, बेबात रंक सरीखों में अपना ऐश्वर्य लुटा देंगे।
मैं इसलिए अपनी राय कि - "पता नहीं क्या समझता है अपने-आपको" - इस राय को बदलता हूँ। अब मुझे लगता है कि - "शायद समझता है वो अपने-आपको"।
शायद समझता हो वो सेनेका की इस उक्ति का सार - "Wealth is the slave of a wise man. The master of a fool."
4 comments:
लिम्बा राम याद हैं ? निशाने बाज वह भी था । मंहगे धनुश पाने के पहले बाँस की खपच्ची से बने धनुश पर हाथ आजमाता था। प्रतिभा कैसे खोजी जानी चाहिए, एक अरब के देश में, यह चर्चा तब भी चली थी।
मेक्सिको ऑलिम्पिक के बाद हॉकी की स्थिति झण्डू होने लगी । लम्बे अन्तराल के बाद पश्चिमी ओडिशा और झारखण्ड के लड़के देश की टीम का हिस्सा बने। हॉकी के शुरुआती दिनों में एँग्लो-इण्डियन , फिर सिख ज्यादा आते थे। खेल पर योजनाबद्ध खर्च के बजाय इतनी बड़ी राशि पदक जीतने वालों को देना भी क्या उचित है ?
हम भारतीय (बुरा न मानें) काफी जाहिल और सौंदर्य बोध से हीन लोग हैं. ख़ुद की औकात नहीं की आई आई एम् या आई आईटीज़ में दाखिल हो सकें, पर हमारे बीच में से जो उस मुकाम तक जा पहुंचे हैं उन्हें इस बात पर गरियाते हैं की वे प्राइवेट जॉब करके पैसे क्यों बना रहे हैं? ओलंपिक में भी यही मानसिकता काम कर रही है, और इस आलोचना के मूल में ईर्ष्या और अपना नाकारापन छिपाने की मानसिकता है.
पहले व्यवस्था हम सब मिल कर बर्बाद कर दें, फ़िर सफलता और उपलब्धियों के लिए रोयें, और अगर कोई अपने ही संसाधनों और विज़न के दम पर मैडल ले आए तो कहें की,
"इसमें कोई बड़ी बात नहीं है, सब पैसे की माया है, इतने दौलतवाले अगर हम होते तो ऐसे दस पन्द्रह गोल्ड यूँ ही ले आते. कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मार लिया है!"
वह रे मिडिलक्लास इंडियन हाइपोक्रेसी!!! जय हो तेरी!!!
दो बातें हैं - विचार और उसकी अभिव्यक्ति.
आपकी अभिव्यक्ति बहुत साफ़ और स्पष्ट है - इसके लिये बधाई!
बाकी बिंद्रा के संदर्भ में आपके विचार आपके अपने हैं, लेख पढ कर बिंद्रा के बारे में या आपके विचारों पर राय बनाने की कोई जल्दी या जरूरत नहीं है अभी.. आगे भी पढना तो होगा ही.
हां उपर एक प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी आई है "विचार" नामक आईडी की - बहुमूल्य है! विचार भी धांसू है और अभिव्यक्ति भी लाजवाब है.
आपके लेख नें ऐसी सटीक प्रतिक्रिया के लिये उत्प्रेरक का काम किया है यह भी एक उपलब्धी है.
तथ्यपरक और अलग दृष्टीकोण को अभिव्यक्त करने वाला आलोचनात्क आलेख है। मैं सभी बातों से पूर्णत सहमत हूँ। जब सारा देश अभिनव की जयजयकार के नारे लगा रहा है तब इस तरह से सोचना बताता है कि कोई है जो सचेत है और सोचता भी है।
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